मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

हम कहाँ थे,हम कहाँ जा रहे हैं - रजनी छाबड़ा

हम कहाँ थे,हम कहाँ जा रहे हैं

रजनी छाबड़ा
सुहाग के जोड़े,कुमकुम सने पग और
मेहँदी रचे हाथों से सजी संवरी दुल्हनिया
घोड़े पर सवार,सेहरे से सजे,
शाही शान से आते  दुल्हे  राजा
क्या ख्वाबों की बात हो जायेंगे
औत चटक,जनक जननी के जज़्बात जायेंगे
 
अपने जिगर के टुकड़े को
निगाहों से दूर बसने देना
क्या उन्हें मनमानी का परमिट दे गया
और अभिभावक क्या
उनका जीवन साथी सुझाने में
इतने अक्षम हो गए कि
नयी पौध द्वारा,वैवाहिक जीवन से पहले ही
खुद को आजमाना ज़रूरी हो गया
 
रिश्ते न हुए,
हो गयी मिठाई
चख लौ,भायी तो भायी
वरना  ठुकराई
आदम और हव्वा की
वर्जित फल खाने की  
 कहानी का दोहरान
आधुनिक पीड़ी चढ़ती जायेगी
दिशाहीनता की एक और सोपान
 
मृगतृष्णा सी तलाश
भटकन की राह दिखती है
तन मन की बेताबी बडाती  है
जीवंत  विश्वास,संस्कार और परम्पराएँ
क्यों न हम यही आजमाई राह अपनाये
 
कानून की कलम से लिखा
लिव इन का फैसला
सर पर सवार होने  न पाए
भारतीयता का परिवेश बदलने न पाए
हम भारतीय हैं,भारतीय रहेंगे
तपस्वनी धरा का यही औचित्य
सारी दुनिया को दिखलायें