गुरुवार, 25 जून 2009

जल प्रेम का इतिहास बताती ग्वालियर की बावड़ियाँ

जल प्रेम का इतिहास बताती ग्वालियर की  बावड़ियाँ

- देव श्रीमाली

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा ग्रामीण पत्रकारिता  विकास संस्थान के अध्यक्ष हैं)

ग्वालियर संगीत की नगरी है । इसी जमीं पर मियाँ तानसेन उर्फ तन्ना मिश्रा ने संगीत का ककहरा सीखा । संगीत सम्राट बने और बादशाह अकबर के नौ रत्नों में शुमार हुए । तोमर राजवंश के महान शासक राजा मानसिंह तोमर ने यहीं पर 'ध्रुपद' की रचना की। लेकिन संगीत ही नहीं ग्वालियर के शासकों का प्रेम जल संरक्षण को लेकर भी उतना ही प्रगाढ़ रहा है जितना संगीत के प्रति । इसकी गवाही देने के लिए आज भी ग्वालियर शहर के कोने - कोने पर कहीं जीर्ण शीर्ण तो कहीं ठीक ठाक हालत में मौजूद बावड़ियों के अवशेषों से स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है ।

       ग्वालियर बावड़ियों के लिहाज से इतना समृध्द है और इनका निर्माण इतने शानदार स्थापत्य के साथ और कलात्मक तरीके से कराया गया है कि आज के इंजीनियर तक इन्हें देखकर चमत्कृत हो जाते हैं । यही वजह है कि कई बार तो जल संरक्षण से जुड़े लोग कहते हैं कि ग्वालियर को सिर्फ संगीत ही नही बल्कि '' संगीत और बावड़ियों का शहर '' कहा जाना चाहिए ।

       दरअसल ग्वालियर का जन्म ही चमत्कारिक जल के जल संरक्षण के प्रयासों के साथ ही हुआ अर्थात ग्वालियर राज्य की नींव ही एक बावड़ी की स्थापना के साथ हुई । ग्वालियर के ऐतिहासिक दुर्ग का निर्माण गोपगिरि पर्वत पर किया गया जो बाद में गोपाद्रि और उसके बाद गोपाचल पर्वत कहलाया । फजल अली के एतिहासिक ग्रंथ - 'कुलियाते ग्वालियर' जो कि अकबर के शासन काल में लिखा गया था, मैं ग्वालियर के क्षेत्रीय इतिहास के उपलब्ध फारसी स्त्रोतों में लिखा है - '' विक्रमादित्य के हुकूमत के 332 वर्ष गुजरे थे और हिजरी सन् 332 वर्ष पूर्व एक जमींदार सूरसेन का था, उसने ग्वालियर किले की बुनियाद रखी । उसने प्रथम निर्माण ' सूरजकुंड ' के रूप में करवाया तथा ग्वालिपा ऋषि के आर्शीवाद से 36 वर्ष राज्य किया । इस मामले को लेकर एक किंवदंती थी इस अंचल में शताब्दियों से प्रचलित है । इसके मुताबिक सूरसेन कोढ़ रोग से पीड़ित था और बड़ा जमींदार होने के बावजूद अपने इस रोग के कारण बहुत दु:खी रहता था । एक बार वह जंगल में भटकते हुए गोपगिरि पर पहुँच गया जहाँ ग्वालिपा ऋषि तपस्यारत थे । प्यास से व्याकुल सूरसेन को देखकर ग्वालिपा ऋषि ने उससे कहा -'' बहुत दु:खी और परेशान हो । जाओ सामने के कुण्ड में जाकर हाथ धोकर पानी पी लो ।'' ऋषि ग्वालिपा के बताये अनुसार जब वह पास में स्थित छोटे से गड्डे के पास पहुँचा और उसने पानी में हाथ डालकर धोए । पानी पीकर प्यास बुझाने के बाद जब उसकी निगाह अपने हाथों पर पड़ी तो वह एकदम चमत्कृत हो गया । उस करिश्माई जल के स्पर्श से सूरसेन के हाथों का कोढ़ जाता रहा । वह प्रसन्नतापूर्वक ग्वालिपा ऋषि के पास जाकर उनके चरणों में जाकर गिर पड़ा । ग्वालिपा ऋषि ने राज करने का आर्शीवाद दिया । सूरसेन से उस गड्डे पर एक भव्य बावड़ी का निर्माण करके ग्वालियर राज्य की स्थापना की । यह ऐतिहासिक बावड़ी आज भी ग्वालियर दुर्ग में स्थित है जो ''सूरजकुंड '' के नाम से जानी जाती है ।

       ग्वालियर दुर्ग परिसर में ही एक और दुर्लभ बावड़ी स्थित है - एक पत्थर की बावड़ी ।  इस अद्भुत वास्तु कौशल से निर्मित बावड़ी का निर्माण तत्कालीन तोमर शासक डूंगरेंद्र सिंह और कीर्ति सिंह (1394-1520) ने कराया । इसकी खासियत यह है कि इसका निर्माण एक ही पत्थर पर काटकर किया गया है । तात्कालीन शासक जैन धर्मावलंबी थे लिहाजा उन्होनें इसमें भगवान पार्श्वनाथ की पद्मासनस्थ प्रतिमा भी निर्मित कराई। दुर्ग परिसर में स्थित यह स्थल देशभर के जैन धर्मावलंबियों का बड़ा तीर्थ क्षेत्र है ।

       इस अंचल के लोगों के जल प्रेम का एक और किस्सा विश्व विख्यात है । यह है ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर और एक गूजरी निन्नी की प्रेम कहानी, जो इतिहास में मृगनयनी के रूप में जानी जाती है । कहा जाता है कि राजा मानसिंह तोमर शिकार के लिए राई गाँव की ओर गये । रास्ते में दो भैंसो की लड़ाई हो रही थी जिससे मार्ग अवरूध्द हो गया। यह लड़ाई देखने के लिए राजा भी खड़े हो गये । पास मे ही गाँव की कुछ कन्याएँ खड़ी थीं, जो कि गूजर समाज की थी । इनमें एक ने आगे बढ़कर भैंस का सींग पकड़कर उन्हें अलग अलग कर दिया । राजा उस गूजरी की बहादुरी और उसके अद्वितीय नैसर्गिक सौंदर्य पर मोहित हो गए । उन्होनें उसे विवाह का प्रस्ताव दिया । लेकिन निन्नी नामक इस गूजरी ने राजा के समक्ष एक शर्त रखी कि वह तभी शादी करेगी जब उसके पीने के लिए सांक नदी का पानी किले में पहुँचे । राजा मानसिंह ने दुर्ग पर एक पृथक महल बनवाया जो आज भी गूजरी महल के नाम से जाना जाता है और राजा मानसिंह ने मृगनयनी नामक अपनी इस रानी को पीने के लिए सांक नदी से महल तक पानी लाने के लिए पाइप लाइन डलवाई थी किले पर उस जल संरक्षण के लिए एक बावड़ी का भी निर्माण भी कराया  था । इनके अवशेष अभी भी ग्वालियर दुर्ग के आसपास मौजूद हैं ।

ग्वालियर में मौजूद कुछ पुरातन ऐतिहासिक बावड़ियॉ :-

यूँ तो ग्वालियर शहर के हर हिस्से में बावड़ियों के अवशेष मौजूद है, जिनकी संख्या सैकड़ों में है । इनमें से अनेक नष्ट हो गई  । कुछ अतिक्रमण का शिकार हो गई और कई सिकुड़कर कुएँ में तब्दील हो गई ।ऐसी कुछ बावड़ियों की जानकारी को दो भागों में बॉटा जा सकता है :- (क) ग्वालियर दुर्ग की बावड़ियाँ और (ख) शहर में स्थित बावड़ियाँ ।

(क) ग्वालियर दुर्ग

       भारत में ऐसे कम ही ऐसे दुर्ग है जहाँ इतनी ऊँचाई पर जल प्रदाय व्यवस्था के सुचारू प्रयास किये गये हों  । यहाँ स्थित प्रमुख बावड़ियाँ इस प्रकार हैं :-

सूरजकुंड :- ग्वालियर ऋषि के कहने पर सूरजसेन ने इसको उत्तम सरोवर में तब्दील किया । माना जाता है कि इस कुंड के निर्माण से निकले पत्थरों से ही दुर्ग के लिए दीवारें बनाई गई । मातृचेट ने इसे सुधारा और पुननिर्माण कराया ।

गंगोला ताल :- दुर्ग पर ही स्थित तालनुमा इस बावड़ी का निर्माण 8 वीं सदी में किया गया । इसका नाम राजा मानसिंह कालीन गंगू भगत के नाम पर पड़ा । माना जाता है कि इससे निकले पत्थरों से तेली का मंदिर बनवाया गया ।

       ग्वालियर दुर्ग के बारे में इब्नबतूता ने जो अपना यात्रा वृतांत लिखा है कि उसके मुताबिक ''किले के अंदर काफी पानी के हौज हैं । किले की दीवार मिले हुए 20 कुएँ हैं जिनके पास ही दीवार में मजनीक और अरादे लगे हुए हैं ।' यहाँ मध्य युग में 21 कुएँ, सरोवर और बावड़ियों की मौजूदगी का उल्लेख मिलता है । इनमें से जौहर ताल, तिकोनिया ताल, रानी ताल, चेरी ताल, एक खंबा ताल, कटोरा ताल, नूर सागर अभी  भी अवशेष की दशा में मौजूद हैं ।

 

 

(ख) ग्वालियर शहर

       ग्वालियर शहर में बावड़ियों की भरमार रही है । इनमें से कई का तो अब अता पता ही नहीं है । मसलन बेला की बावड़ी के नाम से ग्वालियर में एक प्रसिध्द स्थान है लेकिन वर्तमान में यहाँ कोई बावड़ी नहीं है । इतिहास में लेख है कि राजा मानसिंह ने बेला की बावड़ी का निर्माण कराया था । राजा वीर सिंह ने भी एक बावड़ी बनवाई थी जिसे कालांतर में बॉध के रूप में विकसित किया गया था । इसको हाल ही में सरकार ने पुन: विकसित किया है जो वीरपुर बाँध के नाम से जाना जाता है ।

       सिंधिया राज परिवार के शाही निवास जय विलास पैलेस, ऊषा किरण पैलेस, की चहारदीवारी में रहे कई किलोमीटर लंबे परिसर में, जो अब कालोनियों में तब्दील हो गई हैं में दर्जनों बावड़ियाँ जीर्ण शीर्ण हालत में मौजूद है । ग्वालियर शहर में जनकताल, सागर ताल, गजराराजा स्कूल,कमलाराजा कालेज पुराने हाईकोर्ट के पास, माधौनगर, हिरणवन, शारदा विहार, निम्बाजी की खोह में शानदार स्थापत्य वाली बावड़ियों के अवशेष अभी भी मौजूद हैं । इनमें से कुछ बावड़ियों का जीर्णोध्दार भी किया गया है जो नागरिकों के लिए पेयजल की आपूर्ति कर रही है ।यदि बाकी बावड़ियों को संरक्षित एवं पुनर्जीवित किया जाए तो एक ओर तो ग्वालियर की इन ऐतिहासिक धरोहरों का संरक्षण होगा वहीं ये ग्वालियर की पेयजल समस्या से निजात दिलाने में सहायक होंगी ।

 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा ग्रामीण पत्रकारिता  विकास संस्थान के अध्यक्ष हैं)

 

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