गुरुवार, 28 जुलाई 2011

Cabinet approves the Lokpal Bill, 2011

Cabinet approves the Lokpal Bill, 2011

The Union Cabinet today approved the proposal for the enactment of a new legislation in the form of the Lokpal Bill, 2011. The Bill provides for the establishment of the institution of Lokpal to inquire into allegations of corruption against certain public functionaries and for matters connected therewith or incidental thereto.

The Bill envisages setting up the institution of Lokpal consisting of Chairperson and eight Members with the stipulation that half of the Members shall be Judicial Members. It will have its own Investigation Wing and Prosecution Wing with such officers and staff as are necessary to carry out its functions.

The Lokpal shall inquire into allegations of corruption made in respect of Prime Minister, after he has demitted office; a Minister of the Union; a Member of Parliament; any Group 'A' officer or equivalent; Chairperson or member or officer equivalent to Group 'A' in any body/ Board/ corporation/ authority/ company/ society/ trust/ autonomous body established by an Act of Parliament or wholly or partly financed or controlled by the Central Government; any director, manager, secretary or other officer of a society or association of persons or trust wholly or partly financed or aided by the Government or in receipt of any donations from the public and whose annual income exceeds such amount as the Central Government may by notification specify. However, the organisations created for religious purposes and receiving public donations would be outside the purview of Lokpal.

The Lokpal shall not require sanction or approval under Section 197 of the Code of Criminal Procedure, 1973 or Section 19 of the Prevention of Corruption Act, 1988, in cases where prosecution is proposed. The Lokpal will also have powers to attach the property of corrupt public servants acquired through corrupt means

गुरुवार, 7 जुलाई 2011

एनएसजी की वेबसाइट के हैक होने का संकेत नहीं

एनएसजी की वेबसाइट के हैक होने का संकेत नहीं

पिछले दिनों मीडिया में इस आशय की खबरें आईं थी कि नैशनल सिक्योरिटी गार्ड (एनएसजी) की वेबसाइट को हैक कर लिया गया है और उसमें से कुछ सूचनाएं भी चुरा ली गई हैं। इस बात का कोई संकेत नहीं मिला है कि एनएसजी की वेबसाइट हैक की गयी है। इस वेबसाइट पर कोई भी संवेदनशील जानकारी नहीं है। यह वास्तव में आम लोगों के इस्तेमाल के लिए बनाई गयी है, मौजूदा वेबसाइट को नेशनल इन्फॉरमेटिक्स सेंटर (एनआईसी) की मदद से और ज्यादा उपयोगी तथा सरकार के दिशानिर्देशों का पालन करते हुए और अधिक सुरक्षित बना दिया गया है। वेबसाइट को दुरूस्त करने का काम पिछले कुछ महीनों से चल रहा है और यह एक सामान्य प्रशासनिक प्रक्रिया है।

इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि सुरक्षा की दृष्टि से एनएसजी इंटरनेट के माध्यम से जुड़े कम्प्यूटरों और नेटवर्क में कोई संवेदनशील जानकारी नहीं रखता है। कम्प्यूटरों की सुरक्षा को लेकर एनएसजी द्वारा पूर्व में जारी दिशानिर्देशों को दोबारा सभी अधिकारियों और कर्मचारियों को जारी करते हुए उनका सख्ती से पालन करने के लिए कहा गया है।

शनिवार, 2 जुलाई 2011

कांग्रेस नेता अशोक सिंह एवं उनकी पत्नी के खिलाफ धोखाधड़ी का प्रकरण दर्ज

कांग्रेस नेता अशोक सिंह एवं उनकी पत्नी के खिलाफ धोखाधड़ी का प्रकरण दर्ज
ग्वालियर 1 जुलाई 11, यहॉं विश्वविद्यालय थाना क्षेत्र में कांग्रेस के प्रदेश सचिव अशोक सिंह एवं उनकी पत्नी राजेश रानी सिंह के विरूद्ध धोखाधड़ी का मामला दर्ज किया गया है
अशोक सिंह की आधुनिक हाउसिंग डवलपमेंट कंपनी है वे उसके संचालक हैं , उनके खिलाफ राष्ट्रीय आवास बैंक अधिनियम 1987 की धारा 29 ए के तहत भी मामला दर्ज किया गया है, ज्ञातव्य है कि अशोक सिंह दो बार ग्वालियर से लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रत्‍याशी रहे हैं ।  

शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

जन लोकपाल : बीमारी से अधि‍क खतरनाक इलाज - कपिल सिब्‍बल

जन लोकपाल : बीमारी से अधि‍क खतरनाक इलाज -        कपिल सिब्‍बल

वि‍शेष लेख: लोकपाल 

 

 

-        कपिल सिब्‍बल *

 

यह समय इलेक्‍ट्रानिक मीडिया की ओर से पेश किये जा रहे मनोरंजन से हटकर उन मुद्दों पर सोचने का है जो लोकपाल की स्‍थापना में बाधक बन रहे हैं।

 

श्री अन्‍ना हजारे और उनके द्वारा नामित लोगों की ओर से प्रस्‍तावित जन लोकपाल विधेयक के प्रावधानों का विश्‍लेषण हमारे संवैधानिक ढांचे की व्‍यापक विशेषताओं को ध्‍यान में रखते हुए जरूर किया जाना चाहिए। हमारे संविधान के तहत कार्यपालिका संसद और न्‍यायपालिका दोनों के प्रति जवाबदेह है। जब विपक्ष के सदस्‍य सरकार से नीतिगत निर्णयों पर स्‍पष्‍टीकरण मांगते हैं, सरकार के प्रस्‍तावित विधेयकों पर प्रतिक्रिया देते हैं और उसका विश्‍लेषण करते हैं तथा सूचनाएं मांगते हैं, तब यह संसद के प्रति जिम्‍मेदार होती है। संसदीय बहसों समेत तमाम सशक्‍त संसदीय प्रक्रियाओं के जरिए देशवासियों को बताया जाता है कि कार्यपालिका किस तरह कार्य कर रही है।

 

विधायिका, नामत: संसद के दोनों सदन न्‍यायालय के प्रति उत्‍तरदायी हैं जिसके पास न्‍यायिक समीक्षा के जरिए किसी भी विधेयक को संविधान की कसौटी पर परखने की शक्‍ति है। हमारे जनप्रतिनिधि भी अपने निर्वाचकों के प्रति जवाबदेह और जिम्‍मेदार होते हैं जब उन्‍हें सदन भंग हो जाने पर फिर से चुनाव मैदान में आना होता है। न्‍यायपालिका विधायिका और कार्यपालिका दोनों से ही स्‍वतंत्र है और वह एक सार्वजनिक तथा खुली न्‍यायिक प्रणाली के तहत जवाबदेह है। बहुस्‍तरीय न्‍यायालयों की व्‍यवस्‍था से न्‍यायिक प्रणाली के सुधार में मदद मिलती है। न्‍यायाधीश महाभियोग की प्रक्रिया के द्वारा व्‍यक्‍तिगत रूप से भी विधायिका के प्रति जवाबदेह हैं। हालांकि इसका अब तक बहुत अच्‍छा परिणाम नहीं मिला है।

 

हमें एक ऐसे कानून के माध्‍यम से बड़े पैमाने पर जबावदेही सुनि‍श्‍चि‍त करने की आवश्‍यकता है, जो एक तरफ तो न्‍यायपालिका की स्‍वायत्‍ता और स्‍वतंत्रता को सुरक्षित रखे, वहीं दूसरी तरफ सख्‍त जवाबदेही तय करे। दूसरे शब्‍दों में राज्‍य का हर एक अंग, हमारी संवैधानिक प्रणाली का हर स्‍तंभ किसी न किसी रूप में एक-दूसरे के प्रति जवाबदेह है। यही हमारे संसदीय लोकतंत्र का मूल तत्‍व है।

 

यह मूल तत्‍व आज खतरे में है और लग रहा है कि श्री अन्‍ना हजारे और उनके नामित व्‍यक्‍तियों द्वारा प्रस्‍तावित जन लोकपाल विधेयक इसे खत्‍म कर देना चाहता है। प्रस्‍तावित विधेयक के अनुसार लोकपाल स्‍वतंत्र जांच और अभियोजन एजेंसियों से लैस एक ऐसा अनिर्वाचित कार्यकारी नि‍काय होगा, जो किसी के प्रति जिम्‍मेदार नहीं रहेगा। सरकार में नहीं होने के कारण यह सरकार के प्रति जवाबदेह नहीं होगा, इसलिए केवल इसी के पास सभी सरकारी अधिकारियों की जांच का अधिकार होगा। यह विधायिका के भी प्रति जिम्‍मेदार नहीं होगा। सरकार से बाहर होने के कारण इसकी कार्यप्रणाली के बारे में सरकार को कोई जानकारी नहीं होगी, जो संसद में जानकारी दिये जाने के लिए सबसे पहली जरूरत है।

 

इसके अलावा, इसे संसद सदस्‍यों की भी जांच का अधिकार होगा। यह न्‍यायालय के प्रति भी तब तक जिम्‍मेदार नहीं है जब तक कि यह आपराधिक मुकदमों के प्रावधानों के तहत खुद कोई न्‍यायिक प्रक्रिया शुरु नहीं कर रहा हो। साथ ही, इसके पास न्‍यायपालिका के सदस्‍यों की जांच की अनोखी शक्‍ति होगी। किसी भी संवैधानिक संस्‍था के प्रति जवाबदेह नहीं रहने वाली इस संस्‍था की हैसियत संवैधानिक तौर पर न्‍यायसंगत नहीं ठहरायी जा सकती है।

 

उपरोक्‍त तर्कों का विरोध यह कहकर किया जाता है कि न्‍यायपालिका पर भी यही स्‍थितियां लागू होती हैं क्‍योंकि वह भी न तो विधायिका है और न ही कार्यपालिका के प्रति जवाबदेह है। दो कारणों से कहा जा सकता है कि यह तर्क भ्रामक है:

 

1.      सभी न्‍यायिक प्रक्रियाएं सार्वजनिक होती हैं और न्‍यायिक फैसलों की समीक्षा के लिए अपील तथा पुनर्विचार याचिकाओं जैसी व्‍यवस्‍था है। न्‍यायिक भूलों को उच्‍चतर न्‍यायालयों में सुधारा जा सकता है। दूसरी तरफ लोकपाल की अपनी जांच होनी अनिवार्य है।

2.      न्यायपालिका की स्‍वतंत्रता की तुलना लोकपाल के कार्यकारी प्राधिकारी की स्‍वतंत्रता से नहीं की जा सकती है, जिसका प्राथमिक कार्य जांच और अभियोजन करना है।

 

न्‍यायपालिका नागरिकों की रक्षा करने के लिए हैं। लोकपाल उन पर अभियोग चलाने के लिए है। न्‍यायपालिका विवादों को सुलझाती है, इसलिए इसकी स्‍वतंत्रता की रक्षा जरूर होनी चाहिए। यह लोगों पर अभियोग चलाने के लिए नहीं बनी है। दूसरा तर्क यह है कि लोकपाल वैसा ही है जैसे चुनाव आयोग तथा नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) स्‍वतंत्र संवैधानिक संस्‍थाएं हैं। यह तुलना भी अच्‍छी नहीं है। चुनाव आयोग का काम नियामक का तथा आवर्ती है और कैग का काम सरकारी विभागों और एजेंसियों के खर्चों का विश्‍लेषण करना है ताकि सरकार की ओर से उन्‍हें दी गयी राशि की बर्बादी नहीं हुई हो।

 

इसलिए, यह स्‍पष्‍ट है कि एक अनिर्वाचित लोकपाल जो किसी के प्रति जवाबदेह नहीं हो, हमारी संसदीय प्रणाली की अवधारणा पर अभिशाप की तरह है।

 

एक और चिंताजनक बात है जन लोकपाल की सामान्‍य पूर्वधारणा। यह इस कल्‍पना के आधार पर अपना काम शुरु करता है कि भ्रष्टाचार  संस्थागत हो गया है और केवल बढ़ता ही जा रहा है क्‍योंकि भ्रष्टाचार के कारण मिलने वाले लाभ में सभी के साझीदार होने के कारण सरकारी विभागों में वरिष्‍ठ अधिकारी भ्रष्टाचार के आरोपी अपने अधीनस्थ कर्मचारी को पूरी तरह संरक्षण देते हैं। नतीजन, भ्रष्ट कृत्यों पर कार्रवाई नहीं होती है और यदि होती है तो उसमें काफी देरी की जाती है। उनका यही तर्क राजनीतिक प्रक्रिया पर लागू होता है कि चूंकि राजनीतिक वर्ग भ्रष्ट है इसलिए वह ऐसे कानून नहीं बनाना चाहता है जो उन्हें जवाबदेह ठहराए। ये मान्यताएं पूरी तरह से सही नहीं हैं। मूल रूप से उनका कहना यह है कि अगर सरकार के बाहर एक लोकपाल स्‍थापित कर दिया जाता है, तो वहां निजी हितों का कोई प्रभाव नहीं होगा और लोकपाल व्‍यवस्‍था  को साफ सुथरा बनाने में सक्षम होगा। मुझे यह तर्क स्वाभाविक तौर पर दोषपूर्ण लगता है।

 

हम एक क्षण के लिए मान लें कि हमने एक ऐसे लोकपाल की स्‍थापना कर दी जिसके दायरे में केन्द्रीय सरकार के सभी (लगभग चार लाख) कर्मचारी हैं और हर राज्य में एक लोकायुक्त हो जिसके दायरे में संबद्ध राज्य सरकारों के सभी (लगभग 7-8 लाख) कर्मचारी हैं। यदि लोकपाल या लोकायुक्त को 10-12 लाख लोगों के भ्रष्ट कृत्यों पर कार्रवाई करनी है तो एक विशाल तंत्र की आवश्यकता होगी, जिसे बड़े पैमाने पर मानव संसाधन की भी जरूरत होगी और सरकारी कर्मचारियों के व्यक्तिगत भ्रष्टाचार से निपटने के लिए भी काम करना होगा।

 

यह तंत्र कैसे विकसित होगा ? मानव संसाधन के स्‍तर पर आवश्यक सुविधाएं मौजूदा जांच एजेंसियों से ही लोकपाल को हस्तांतरित करनी होंगी। सीबीआई में उपलब्‍ध मानव संसाधन जो भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम, 1988 के तहत भ्रष्टाचार से निपटने के लिए काम कर रहा है, कुछ हद तक उसके और सरकार की अन्य जांच एजेंसियों के कर्मियों को एक साथ लोकपाल में स्थानांतरित करना होगा। इसके अलावा लोकपाल को अपनी जरूरतों के लिए कई वर्षों तक अलग से जांच और अभियोजन अधिकारियों की भर्ती करनी होगी।

 

यह समझ में नहीं आता है कि कैसे स्‍थानांतरित किये जाने वाले मौजूदा अधिकारी या लोकपाल के द्वारा बहाल किये जाने वाले नये अधिकारी अचानक  पवित्र और ईमानदार हो जाएंगे, वह भी, सिर्फ इस कारण क्योंकि उन्‍हें लोकपाल के अधीन काम करना है। ऐसी किसी संरचना को स्थापित करने का खतरा यह है कि वह एक ऐसे निरंकुश दानव का रूप ले लेगा जिसकी कोई जवाबदेही नहीं होगी और जो राज्य के बाहर एक दमनकारी संस्था के रूप में कार्य करने लगेगा। इसका परिणाम कहीं और अधिक खतरनाक होगा। इस लिहाज से, यह इलाज, इस रोग से भी बदतर हो जाएगा। संवैधानिक ढांचे के बाहर कोई ऐसा कार्यकारी निकाय नहीं बनाया जा सकता है जो किसी के प्रति जवाबदेह न हो, क्योंकि नि‍हि‍त स्‍वार्थों के कारण ऐसे संगठन के भ्रष्‍ट होने का खतरा ज्‍यादा है। खासकर, उस संवैधानिक ढांचे के तहत चल रही कार्यकारी प्रणाली की तुलना में, जहां नियंत्रण और संतुलन के माध्‍यम से जवाबदेही सुनिश्चित की जाती है।

(क्रमश:)

***

*केन्‍द्रीय मंत्री और संयुक्‍त मसौदा समि‍ति‍के सदस्‍य

 

भ्रमवश हुआ अर्थ का अनर्थ , शस्‍त्र व शास्‍त्र से प्रशिक्षित नौजवानों से आशय देश को शांतिप्रय देशभक्त नागरिक देना - बाबा रामदेव

पतंजलि योगपीठ की ओर से जारी एक पत्र में बाबा रामदेव ने मीडिया में शस्‍त्र व शास्‍त्र से प्रशिक्षित नौजवानों के समूह गठित किये जाने के बारे में साफ किया है , मैं और मेरे नौजवान समूह देशभक्त व देश की शांति के लिये कार्य करने वाले शस्‍त्र व शास्‍त्र प्रशिक्षित समूह होंगें जो कि देश सेवा के लिये , देश की शांति के लिये कार्यरत व कर्तव्यरत होंगें न कि अशांति फैलाने वाले नक्सली या अन्य आतंकी समूहों की तरह । बात पूरी स्पष्‍ट न होने से मीडिया में भ्रम फैल गया था । पतंजलि योगपीठ द्वारा जारी पत्र की यह प्रति इस समाचार में संलग्न है । आप इसे मूल रूप में पढ़ सकते हैं