शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

चुनावी सर्वे के खतरे - राकेश अचल

चुनावी सर्वे के खतरे
राकेश अचल
लेखक ग्वालियर के वरिष्ठतम पत्रकार एवं समाजसेवी हैं
देश में कोई भी चुनाव हो "एक्जिट"पोल और सर्वे दिखने की होड़ शुरू हो जाती है .इस बार भी यही हो रहा है .पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों के लिए मतदान के फ़ौरन बाद अखबारोब और न्यूज चैनलों में "पोस्ट पोल"दिखाने की होड़ लगी है .पहले ये काम नामचीन्ह ज्योतिषियों के हिस्से में था,लेकिन अब इस पर मीडिया का एकाधिकार हो गया है .
देश की चार सर्वे एजेंसियों ने इस बार लगभग एक जैसे नतीजे परोसे हैं .सर्वे का आधार बहुत ज्यादा वैज्ञानिक नहीं  लाखों-करोड़ों मतदाताओं की मानसिक दशा का अंदाजा कुछ हजार लोगों से बात कर नहीं निकाला जा सकता .लेकिन ऐसे प्रयोग किये जा रहे हैं .यदा-कदा ये सर्वे असल नतीजों के करीब भी हुए हैं किन्तु प्राय:इन सर्वेक्षणों को मुंह की ही खानी पड़ी है .चुनाव आयोग शुरू से इन सर्वेक्षणों के खिलाफ रहा है .राजनीतिक दलों में भी इन  पर  राय नहीं है .जिसके पक्ष में सर्वे होता है वही इनके पक्ष में खड़ा दिखाई देता है और जिसके प्रतिकूल होतें हैं वे इनकी आलोचना करते हैं
चुनाव आयोग ने इस बार मतदान प्रक्रिया आरम्भ होने के बाद ओपिनियन और एक्जिट सर्वे पर रोक लगाई तो भाई लोग पोस्ट पोल सर्वे कर लाये .पता नहीं क्यों कोई असल नतीजों के आने का इन्तजार नहीं करना चाहता ?ये पहला मौक़ा था जब अनेक राज्यों में चुनाव आयोग की सख्ती की वजह से चुनाव "उत्स्व"में तब्दील नहीं हो  मतदाता ने भी मौन साध लिया,किन्तु मीडिया वाले कहाँ मानने वाले थे,सो पोस्ट पोल की दूकान खोल कर बैठे हुए हैं .
देश में इस बार इंडिया टुडे -+ओआरजी ,टाइम्स नाउ =सी वोटर,एवीपी +नील्सन और आई बी एन 7 =सीएसडीएस ने चुनावी सर्वे किये हैं .सभी एजेंसियों ने मिजोरम को छोड़ अन्य सभी चरों राज्यों में भाजपा की सरकार बनती दिखाई है .इन नतीजों  को भाजपा ने माना है कीनू कांग्रेस ने ख़ारिज किया है लेकिन वो मतदाता मौन है जिसने इस चुनावी प्रक्रिया में हिस्सा लिया है .मतदाता को समझ नहीं आ रहा कि वो इन सर्वेक्षणों पर किस तरह से प्रतिक्रिया दे?जनादेश को लेकर देश के मीडिया में इस तरह की हड़बड़ी हैरान करने वाली है .ये वही मीडिया है जिसने इस देश को चुनावों के दौरान नेताओं के भाषण बिना ब्रेक के दिखाए हैं ये पेड़ न्यूज थी या नहीं ये अलग मुद्दा है किन्तु इससे जाहिर है कि मीडिया इस चुनावी प्रक्रिया में एक औजार की तरह इस्तेमाल किया गया/या हुआ .इसलिए उसके आकलन पर आँख मूँद कर भरोसा करने को लेकर कोई गम्भीर होगा कहा नहीं जा सकता
मेरे ख्याल से चुनावी नतीजों को लेकर ये उतावलापन नादानी और अनैतिकता भरा कृत्य है .ये उन करोड़ों मतदाओं का अपमान भी है जो गोपनीयता  के भरोसे मतदान करते हैं .स्वायल ये है कि क्या देश दो-चार दिन चुनाव नतीजों की प्रतीक्षा नहीं कर सकता ?या राजनितिक दल और मीडिया मिलकर मतदाता और  की  जानबूझ कर हराम कर देना चाहते हैं .मीडिया यदि इतना ही विष्वसनीय और समर्थ है तो देश में चुनावों की आवश्यक्ता ही क्या है?क्यों महंगे चुनाव कराये जाएँ?बेहतर हो कि मीडिया से ही सर्वे करा कर सरकारें बना और बिगाड़ दी जाएँ /लेकिन ये नामुमकिन है,ठीक उसी तरह जिस तरह सर्वे के आधार पर चुनाव नतीजों को लेकर कोई भविष्यवाणी करना .
हैरानी इस बात की है कि मीडिया पूर्व में भी इस तरह के आकलनों में मुंह की खा चुका है,लेकिन किसी ने इससे सबक नहीं लिया .सबको अपनी टीआरपी और प्रसार संख्या बढ़ाने की फ़िक्र है .इस अंधी और बनानी होड़ ने मीडिया की लगता कम होती जा रही विश्व्सनीयता को दांव पर लगा दिया है ..इस ज्वलंत और विवादास
पद मुद्दे पर बहस और फैसले की परम आवश्यकता है

राकेश अचल
ग्वालियर

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