मंगलवार, 9 अक्टूबर 2007

संयुक्त वन प्रबंधन

संयुक्त वन प्रबंधन

श्रीमती कल्पना पाल्कीवाला

भारत में भूमि उपयोग की दृष्टि से कृषि के बाद दूसरा स्थान वानिकी का है। देश के 7,74,770 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में वन हैं, जो कुल भूमि उपयोग का 23.57 प्रतिशत हैं। सकल घरेलू उत्पाद में वन क्षेत्र का योगदान 1 प्रतिशत से कुछ अधिक है। किंतु, पारिस्थितिकी प्रणाली सेवाओं के रूप में इस क्षेत्र का अनौपचारिक योगदान कई गुणा अधिक है। भारत में करीब 27.5 करोड़ ग्रामीण निर्धन अपनी आजीविका के लिए आंशिक रूप से वनों पर निर्भर हैं। 8.9 करोड़ जनजातीय आबादी और 47.1 करोड़ मवेशियों के वनों में रहने और 30 करोड़ घनमीटर ईंधन की लकड़ी वनों से निकाले जाने के कारण वनों पर भारी जीवीय (वाइऑटिक) दबाव बढ़ गया है। ग्रामीण लोग ईंधन की लकड़ी, चारा, लट्ठा और अनेक गैर-इमारती वन उत्पादों, जैसे फल, फूल और औषधीय पौधों से धन कमाते हैं।  ग्रामीण भारत की 70 प्रतिशत आबादी घरेलू उर्जा की जरूरतें पूरी करने के लिए ईंधन की लकड़ी की जरूरत पूरी करने के लिए वनों पर निर्भर है। भारत के 8.9 करोड़ जनजातीय लोगों में से आधे वन क्षेत्रों में रहते हैं।

मानव वन संबंध

       मानव और वनों का संबंध सदियों पुराना है। वर्तमान परिस्थितियों में वनों के संरक्षण और उन्हें स्थायित्व प्रदान करने के लिए सक्षम प्रबंधन एवं प्रभावकारी दीर्घकालिक योजना तैयार करना अनिवार्य है। पश्चिम बंगाल में अराबारी जंगलों, हरियाणा में सुखोमाझड़ी परियोजना और चुहापुर हर्बल नेचर पार्क, कर्नाटक में चित्रदुर्ग रेंज में जोगीमाटी आरक्षित वन क्षेत्र, उड़ीसा में अंगुल घुम्सर और भांजानगर वन क्षेत्र, राजस्थान में चंदेलकलां और भानपुरकलां के जंगल, उत्तरांचल में चोपड़ा गांव, कर्नाटक में बीदर, छत्तीसगढ़ में कटांडिह आदि वन परियोजनाओं की सफलताओं और साथ ही देश के कई भागों में स्वयं पहल करने वाली संस्थाओं, स्वयंसेवी वन संरक्षण समितियों के प्रयासों के रूप में भागीदारी पूर्ण प्रबंधन सिध्दांतों की आवश्यकता को समझा गया है। औद्योगिक वानिकी पर प्रारंभिक ध्यान केन्द्रित किए जाने की आवश्यकता को देखते हुए वनों के संरक्षण, प्रबंधन और विकास के तौर तरीकों में परिवर्तन की आवश्यकता है। 80 के दशक में सामाजिक वानिकी के अनुभवों से धीरे धीरे स्थानीय लोगों की भूमिका को औपचारिक रूप से समझा गया और ''देखभाल एवं हिस्सेदारी'' के सिध्दांतों पर आधारित प्रबंधन को अपनाया गया। राष्ट्रीय वन नीति (एनएफपी) 1988 में संशोधित की गयी, जिसमें वन प्रबंधन लक्ष्यों में व्यापक बदलाव किए गए। ईंधन की लकड़ी, चारा और लघु इमारती लकड़ी संबंधी ग्रामीण और जनजातीय आबादी की जीविका की आवश्यकताओं के संबंध में नीति में प्रथम परिवर्तन किया गया। 1990 में राज्य वन विभागों को निर्देश दिए गए थे कि वे वन प्रबंधन व्यवस्थाओं में स्थानीय समुदायों को प्रत्यक्ष रूप से शामिल करें।

      इस पध्दति को आम तौर पर संयुक्त वन प्रबंधन (जेएफएम) का रूप दिया गया।

संयुक्त प्रयास

      सरकार समय समय पर दिशा-निर्देश जारी करती है। वह प्रारंभ में बुनियादी ढांचा प्रदान करती है, जिसके अंतर्गत वन भूमि तक पहुंच, वृक्षों की बिक्री से होने वाले लाभ में हिस्सेदारी, फलों से संबध्द वृक्षों, झाड़ियों, घासों और औषधीय पौधों के रोपण पर बल देने जैसे उपाय शामिल हैं। इन प्रयासों की परिणति आज महिलाओं की भागीदारी, संयुक्त वन प्रबंधन के बेहतर क्षेत्रों में विस्तार और संसाधनों के पुन: सृजन में योगदान के रूप में हुई है।

      सभी राज्य सरकारों और संघ शासित प्रदेशों ने केन्द्रीय रणनीति के रूप में संयुक्त वन प्रबंधन की नीति को अपनाया है। वन विभागों और ग्राम समितियों को गांवों के स्तर पर संयुक्त वन प्रंबंधन समितियों में भागीदार बनाया गया है। संयुक्त वन प्रबंधन के अंतर्गत फिर से हरे-भरे बनाए गए वन क्षेत्रों से प्राप्त होने वाले अंतिम एवं आवर्तक उत्पादों के संदर्भ में निश्चित हिस्सा प्रदान किया जाता है। यह हिस्सा सदस्यों को राजस्व बंदोबस्त पर मूल वनों के अंतर्गत उनकी परंपरागत हकदारी के रूप में मिलने वाली हिस्सेदारी से कहीं अधिक होता है।

      देश में आज 16,000 जेएफएम समितियां हैं, जो 2.2 करोड़ हैक्टेयर क्षेत्र का प्रबंधन करती हैं।

      संयुक्त वन प्रबंधन का अर्थ है, स्थानीय समुदायों और वन विभागों द्वारा संयुक्त रूप से प्रयास करना। इस पध्दति में प्रबंधन लक्ष्यों में बदलाव दिखायी देता है, जिनमें राजस्व अर्जित करने की बजाय पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी सुरक्षा पर अधिक ध्यान केन्द्रित किया जाता है। इससे लोगों और वनों के बीच संबंध बहाल करने में मदद मिलती है। सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह व्यवस्था कानूनी सहायता प्रदान करती है।

      संयुक्त वन प्रबंधन समिति ग्राम स्तरीय लोकतांत्रिक संस्थान का प्रतिनिधित्व करती है। समिति के सामान्य सभा में गांव के सभी इच्छुक व्यस्क सदस्य शामिल होते हैं, और उसकी अध्यक्षता बहुमत के आधार पर चुने गए अध्यक्ष द्वारा की जाती है। संयुक्त वन प्रबंधन समिति की रोजमर्रा की कार्यप्रणाली के लिए सदस्यों द्वारा कार्यकारिणी का चुनाव किया जाता है। सामान्य सभा का अध्यक्ष कार्यकारिणी का भी अध्यक्ष होता है। महिलाओं और समाज के अन्य कमजोर वर्गों की प्रभावकारी एवं सार्थक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए नीति-दिशा निर्देशों में प्रचुर प्रावधान होते हैं। विभिन्न राज्यों में संयुक्त वन प्रबंधन समिति को अलग अलग नाम से जाना जाता है, जैसे वन संरक्षण समिति (एफपीसी), ग्राम वन समिति (वीएफसी), वन संरक्षण समिति (वीएसएस) आदि।

      जेएफएमसी द्वारा एक बृहत् योजना तैयार की जाती है, जिसमें एक दस्तावेज प्रस्तुत किया जाता है। इसमें गांव के बारे में बुनियादी आंकड़े शामिल होते हैं और अलग पांच या दस वर्षों में प्रस्तावित गतिविधियों का उल्लेख किया जाता है। यह दस्तावेज स्थानीय समुदायों द्वारा चुनी गयी गतिविधियों के अनुसार तैयार किया जाता है।

संयुक्त वन प्रबंधन समिति संरक्षण, संरक्षा, वनरोपण के विभिन्न मॉडल, नर्सरी तैयार करने, मृदा एवं नमी संरक्षण कार्य, जागरूकता पैदा करने संबंधी कार्य, वन संरक्षण से संबध्द प्रबंधन प्रवेश बिंदु गतिविधियां, आजीविका सुधार ओर वनों के विकास जैसी विभिन्न प्रकार की गतिविधियों का संचालन करती है।

संवर्ध्दनात्मक गतिविधियां

      प्रवेश बिंदु गतिविधियों का संबंध संवर्ध्दनात्मक गतिविधियों के साथ है, जिनकी शुरूआत लोगों का विश्वास प्राप्त करने के साथ की जाती है। इन गतिविधियों में सिंचाई, पेयजल की आवश्यकता के लिए रोकबांध जैसे जल संरक्षण ढांचों का निर्माण, मृदा नमी क्षेत्र में सुधार, पेयजल आपूर्ति के लिए कुओं की खुदाई, सड़कों और पुलियों का निर्माण, सहायक ढांचे का निर्माण, स्कूल भवन, सामुदायिक भवन बनाना और वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा देना, आदि शामिल हैं।

लाभ

संयुक्त वन प्रबंधन से बड़े पैमाने पर लोगों को अनेक लाभ हुए हैं। ईंधन की लकड़ी और इमारती लकड़ी की जरूरतें पूरी करना आसान हो गया है। इससे होने वाले अन्य फायदों में पारिस्थितिकी के प्रत्यक्ष लाभ, दिहाड़ी कार्य के जरिए रोजगार के अवसर, परिसंपत्तियों का निर्माण, गरीबी उन्मूलन और आजीविका के विकल्प उपलब्ध कराना शामिल है। इसके अतिरिक्त फूलों, फलों का उत्पादन और अंतिम उत्पादन में 50 से 100 प्रतिशत तक भागीदारी का प्रावधान भी इसमें शामिल है।

      परोक्ष फायदों में पारिस्थितिकी संतुलन बहाल करना प्रमुख है। इससे वन आच्छादित क्षेत्र में वृध्दि होती है और मृदा नमी क्षेत्र में निरंतर सुधार होता है। वन क्षेत्रों के आसपास के खेतों में फसल के संरक्षण और भूमि कटाव रोकने में भी मदद मिलती है।

      संयुक्त वन प्रबंधन के जरिए आजीविका सुरक्षित करने में मदद मिलती है। जेएफएमसी के अंतर्गत स्वयं सहायता समूहों का गठन किया जाता है, ताकि आजीविका में सुधार के लिए सदस्यों के कौशल और संसाधनों का भलीभांति दौहन किया जा सके। कई गांव में पत्तों की प्लेटें बनाने, रेशम कीट पालने, बांस से टोकरियां और अनुषंगी वस्तुएं बनाने, वर्मी कम्पोस्टिंग और पारिस्थितिकी-पर्यटन जैसी गतिविधियां संचाािलत की जा रही हैं।

वरिष्ठ मीडिया एवं संचार अधिकारी, पीआईबी, दिल्ली

 

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