सोमवार, 20 दिसंबर 2010

"खादी महज एक वस्त्र नहीं, विचार है" - अमित तिवारी

"खादी महज एक वस्त्र नहीं, विचार है"

अमित तिवारी , समाचार संपादक,  निर्माण संवाद,  (09266377199)

जीवन की तीन बुनियादी जरूरतें हैं - रोटी, कपडा और मकान और विडंबना देखिये कि समाज को रोटी देने वाला किसान भूखा है, सभ्यता को वस्त्रों से अलंकृत करने वाला बुनकर नग्न है और मकान बनाने वाला मिस्त्री सड़क पर सोने के लिए अभिशप्त है. 

इसी विचित्र विडम्बना में हम 21 वीं सदी में हथ-करघा के स्वरुप, संकट और संभावनाओं की चर्चा करने के लिए विवश हैं. 

हथ-करघा का सवाल महज अतीत को पुचकारने के लिए नहीं है, बल्कि यह आज की एक जरूरी जरूरत बन चुका है. यह उन बुनियादी सवालों का हिस्सा है जिनके साथ हम सदी-दर-सदी की यात्रा करते हुए सूचना क्रान्ति के इस विस्फोटक युग तक आ पहुंचे हैं. हमने बेहतर जीवन के लिए बदलावों का स्वागत किया. परिवर्तनों को स्वीकारते रहे. बाजारवाद के रथ पर सवार जगतीकरण की उद्घोषणा के साथ आई इस सदी का हमने आगे बढ़कर स्वागत किया. उम्मीद थी कि शायद इसके बहाने हर घर में विकास का दीप जलाया जा सकेगा. लेकिन ऐसा नही हुआ, बहुत जल्द ही जगतीकरण का विद्रूप चेहरा सामने आ गया. इसका उजागर हुआ चेहरा सभी मानवीय अवधारणाओं को धता बता गया. 

इसकी अमानवीयता का सबसे बड़ा शिकार वही हाथ हुए जिन्होंने सदैव इस सभ्यता को सजाने और संवारने का काम किया. हथ-करघा कभी भी महज एक आर्थिक अभिव्यक्ति नहीं रहा है. बुनकर कभी भी किसी मिल  के मजदूर नहीं समझे गए. हमारे यहाँ के बुनकरों ने तो मनुष्य की नग्न सभ्यता को वस्त्र देने का काम किया. उस वक़्त कोई मशीन नहीं थी, कोई पॉवर-लूम नही था, हमारे बुनकरों के हाथ ही पॉवर थे. हमने यूनान, मिश्र, रोम से लेकर चीन और मध्य-एशिया तक को वस्त्र दिया. यहीं से सीखकर यह सभ्यता खुद को शालीन कह पाई. 

सिन्धु-घाटी सभ्यता में ही यहाँ बुनकरों के प्रमाण मिलते हैं.

 रही बात समाज में बुनकरों की महत्ता की, तो सौंदर्य का मानक बनी आम्रपाली तो बुनकरों की दीवानी ही हुआ करती थी. इन्ही बुनकरों ने तो कवियों के सौंदर्य-बोध को स्थापित किया. यह यदि इस सभ्यता को वस्त्रों से ना सजाते तो शायद तमाम सौंदर्य के काव्य नहीं रचे जा सकते थे. 

"तब सूरदास न किसी कंचुकी की सुन्दरता का बखान करते, ना ही कृष्ण किसी का कपडा यमुना किनारे से लेकर भाग पाते ! "

इसी करघे से कबीर जैसा संत भी निकला. कबीर ने करघे को अध्यात्म का मार्ग बना दिया. कबीर ने अपने बिम्बों में करघे को जोड़ा. "झीनी-झीनी भीनी चदरिया" हो या "जस की तस धर दीनी चदरिया" कबीर ने करघे के आध्यात्म को रचा या यह भी कहा जा सकता है कि करघे ने कबीर जैसे संत को रचा. 

 इतिहास साक्षी है कि बिना किसी पॉवर-लूम के हमारे ढाका का मलमल विश्वप्रसिद्ध था. लेकिन जिस वक़्त में उन मलमल बनाने वाले मजदूरों के हाथ इस बर्बर मशीनी मनुष्य ने काटे थे, जब लाखों कारीगरों को अपाहिज बनाया जा रहा था, तभी इस देश की संस्कृति और सभ्यता का मूल-तत्त्व भी कट गया था. 

देश और उसकी आत्मा की उस हत्या को कोई और भले ही नही देख पाया हो लेकिन गांधी ने उसे देखा. कालांतर में यही करघा स्वतंत्रता प्राप्ति के समय हथियार बना. गाँधी ने चरखे और तकली से भारत को जिन्दा करने की कोशिश की. उन्होंने मैनचेस्टर के कपड़ों की होली इसी चरखे को जिन्दा करने के लिए जलाई थी. बापू ने इसे स्वदेशी की परिभाषा से जोड़ा. इसके सामाजिक और सांस्कृतिक रूप को गढ़ा. गाँधी का स्वदेशी किसी टाटा-बिरला के स्वदेशी उत्पाद को इंगित नहीं करता था. उन्होंने जब कहा था कि "मजबूरी में विदेशी, चाहत में स्वदेशी, दिल में देसी." तब वह किसी "फैब इंडिया"  के बने खादी की बात नहीं कर रहे थे. उन्होंने कहा था कि जब साधना शुरू हो तब देश, कुछ और बढे तो प्रदेश, और गहन साधना हो जाए तो जिला, उसके बाद गाँव, फिर पड़ोस, फिर घर और साधना जब सम्पूर्ण हो जाए तब अपने हाथ की बनी चीजों के प्रयोग तक पहुँचो. 

गाँधी का स्वदेशी-स्वराज और खादी स्वावलंबन की उस पराकाष्ठा तक जाते हैं. स्वावलंबन के उस हथियार को चलाने वाले हाथ ही काट दिए गए.

एक वक्त में ढाका में हमारे मलमल के कारीगरों के हाथ काटे गए थे और अब पूरी जिंदगी ही काटी जा रही है. 

आज खादी का मतलब गाँव का गरीब बुनकर कहाँ रह गया है. अब तो खादी भी स्टेटस सिम्बल है. वो बुनकर जो दुनिया को एक से एक कपडे देता है, इतना भी नहीं कमा पाता है कि खुद अपने लिए एक कपडा बुन सके. 

 

21 वीं सदी में स्वरुप, संकट और संभावनाएं  स्वरूप -

इस सदी में हथ-करघे ने अपना स्वरुप बहुत बदला है. कई मायनों में यह बदला हुआ स्वरुप सुखद है, लेकिन कहीं ज्यादा मायनों में यह स्वरुप अपना मानवीय चेहरा नहीं सिद्ध कर पा रहा है. हथ-करघा महज आर्थिक अभिव्यक्ति नहीं था बल्कि यह जीवन दर्शन रहा है.  कबीर के ताना-भरनी और करघे से लेकर महात्मा गांधी के चरखे से होते हुए इसने पॉवर लूम तक की यात्रा की है. बात चाहे विश्वगुरु की हो या सोने की चिड़िया की, इन बुनकरों का उसमे सबसे बड़ा योगदान रहा है. 

आज भी भारत के कुल निर्यात में एक बड़ा हिस्सा हस्त-शिल्प का ही है. कृषि के बाद यह सबसे ज्यादा रोजगार देने वाला क्षेत्र है. दसवीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक इसमें 67 .70 लाख रोजगार था. इसे ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक 80 लाख करने का लक्ष्य भी रखा गया है. 

इसमें प्रतिवर्ष 3 प्रतिशत की वृद्धि-दर भी चल रही है.

आज खादी का मूल्य बढ़ रहा है. सूती वस्त्र महंगे हो रहे हैं. कॉटन की साडी का दाम आसमान छू रहा है लेकिन प्रश्न यही है कि आखिर इस महंगाई में उस मजदूर बुनकर की क्या हिस्सेदारी है. 

बुनकरों की बदहाली इन तमाम बदलावों का अमानवीय पक्ष ही है. 

संकट-

इस क्षेत्र के सम्मुख सबसे बड़ी समस्या इसका संगठित ना होना भी है. एक ऐसा क्षेत्र जिसका वर्ष 2006 -2007 में निर्यात 20963 करोंड का रहा है, जिसमे दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान लगभग 70 प्रतिशत की वृद्धि दर देखी गयी. उस क्षेत्र के मजदूरों का बदहाल होना, उस क्षेत्र का संगठित स्वरूप ना होना सबसे बड़ी चुनौती है. 

तमाम बुनकरों को नवीनतम तकनिकी शिक्षा का ज्ञान ना होना, बाज़ार की समझ ना होना, अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार के मानकों से अनभिज्ञता इस क्षेत्र से जुड़े हुए लोगों की सबसे बड़ी समस्या है. 

इतने बड़े क्षेत्र के मजदूर यदि इस से पलायन करने को मजबूर हो जाएँ तो निस्संदेह ही यह गंभीर संकट है.

संभावनाएं

21 वीं सदी में हथ-करघा क्षेत्र की संभावनाओं को इसमें हो रही वृद्धि से समझा जा सकता है. सभ्यता को वस्त्र पहनाने वाला भारत एक बार फिर पूरे विश्व को संवारने की स्थिति में आ सकता है. आवश्यकता है कि सरकार इस क्षेत्र की अहमियत को समझकर कदम उठाये. 

और इस बात से भी इनकार नही किया जा सकता है कि सरकार इस पर ध्यान देने की मनः-स्थिति में आ गयी है. हथ-करघा के क्षेत्र के लिए बजट में वृद्धि का मामला हो या 'बाबा साहेब आंबेडकर हस्त-शिल्प' जैसी योजनायें चलाने का, यह सभी कदम इस क्षेत्र के प्रति सरकार की चिंता और प्रयास को दर्शा रहे हैं. 

क्षेत्र को संगठित करने के लिए भी योजनायें बनाये जाने और बनी हुई योजनाओं पर अमल किये जाने की आवश्यकता है. इस से जुड़े मजदूरों के स्वास्थ्य, शिक्षा और उचित सम्मान-धन पर गहन विचार की आवश्यकता है. 

हस्त-शिल्पियों ने न सिर्फ कपडे बुने हैं, बल्कि भारत बुनने का काम भी इन्होने ही किया है. 

इस बात में कोई संदेह नही है कि यदि इस क्षेत्र पर ध्यान दिया जाए तो भारत एक बार फिर से सोने की चिड़िया बन सकता है. और उस चिड़िया को सजाने के लिए देश के कोने-कोने में लगे हुए बुनकर अपना हाथ आगे करते रहेंगे. 

और इसी से बापू के 'स्वदेशी' और 'स्वावलंबन' की अवधारणा को भी जिया जा सकता है. 

अंत में बस हमें बापू की कही हुई इस बात को ध्यान में रखना होगा "खादी महज वस्त्र नही, बल्कि एक विचार है".

 

- अमित तिवारी,

उम्र - 24 वर्ष

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