अंग्रेजों के लिए भारतीयों पर दवा परीक्षण
प्रमोद भार्गव
यह कितनी दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि मानवीयता और नैतिकता के सभी तकाजों को ताक पर रखकर 869 लाचार व गरीब बाल-गोपालों की देह पर निर्माणाधीन दवाओं का चिकित्सकीय परीक्षण कर उनकी सेहत के साथ खिलवाड़ किया गया। मध्यप्रदेश के इन्दौर में ये परीक्षण एक सरकारी अस्पताल में चोरी-छिपे किए गए। इस नाजायज कारोबार को अंजाम अस्पताल के करीब आधा दर्जन चिकित्सा विशेषज्ञों ने दो करोड़ बतौर रिश्वत लेकर योरोपीय बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के लिए दिया। हैरानी यहां यह भी है कि ये परीक्षण सर्वाइकल और गुप्तांग कैंसर जैसे रोगों के लिए किए गए, जिनके रोगी भारत में ढूंढने पर भी बमुश्किल मिलते हैं। इन क्लीनिकल ड्रग एवं वेक्सीन ट्रायल का खुलासा पहले तो एक स्वयंसेवी संस्था ने किया बाद में इसे विधायक पारस सखलेचा द्वारा पूछे गए एक सवाल के जबाव में प्रदेश सरकारके स्वास्थ्य राय मंत्री महेन्द्र हार्डिया ने विधानसभा पटल पर मंजूर किया कि 869 बच्चों पर दवा का परीक्षण बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों ने इंदौर के महाराजा यशवंतराज चिकित्सालय में किया।
ये परीक्षण इंदौर समेत प्रदेश के कुछ अन्य सरकारी अस्पतालों में बगैर अनुमति के किए गए। जिन 869 बच्चों पर ये परीक्षण किए गए उनमें से 866 पर टीका और तीन बच्चों पर दवा का परीक्षण किया गया। ये सभी परीक्षण विश्व स्वास्थ्य संगठन की बजाय बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों ने कराए। ये आंकड़े केवल दो साल के हैं। जबकि प्रदेश में छह साल से आदिवासियों समेत गरीब बच्चों पर दवाओं व टीकों के परीक्षण जारी हैं। परीक्षण के दौरान कुछ बच्चों की मौतें भी हुई हैं। लेकिन इन बच्चों का किसी स्वतंत्र पेनल से शव विच्छेदन नहीं कराया गया। इसलिए यह साफ नहीं हो सका कि मौतें परीक्षण के लिए इस्तेमाल दवाओं के दुष्प्रभाव से ही हुई। दरअसल ऐसी स्थिति में खुद चिकित्सक नही समझ पाते कि प्रयोग में लाई जा रही दवा से मरीज को बचाने के लिए कोन सी दवा दी जाए। इसलिए इन प्रयोगों के दौरान रोगी की स्मरणशक्ति गुम हो जाना, आंखों की रोशनी कम हो जाना और शरीर की प्रतिरोधात्मक क्षमता घट जाना आम बात है। दवाओं का ऐसा ही प्रयोग भोपाल गैस दुर्घटना के पीड़ितों पर भी भोपाल मेमोरियल अस्पताल में किया गया था।
इंदौर के अस्पताल में वर्ष 2010 में ही 44 बालक-बालिकाओं पर सर्वाइकल कैंसर और गुप्तांग कैंसर के लिए वी-503 टीका का परीक्षण किया गया। गुप्तरूप से किए जा रहे इन परीक्षणों का खुलासा एक स्वयंसेवी संस्था के साथ मिलाकर इसी अस्पताल के चिकित्सक डॉ. आनंद राय ने किया तो एक जांच समिति गठित कर मामले को दबाने की कोशिश की गई। इस समिति ने लाचारी जताते हुए अपनी रिपोर्ट में कहा कि दुनिया में ऐसा कोई कानून नहीं है कि जिसके जरिए दवाओं के ऐसे परीक्षणों पर रोक लगाई जा सके। इस आधार पर न तो समिति के सुझावों को अमल में लाया जा सका और न ही परीक्षण के लिए दोषी आधा दर्जन चिकित्सकों के विरुध्द कोई कार्यवाही की जा सकी। यहां इस सवाल को गौण कर दिया गया कि चिकित्सकों ने दवा कंपनियों से मोटी रकम तो निजी लाभ के लिए ली, लेकिन संसाधन सरकारी अस्पताल के उपयोग में लिए? क्या अस्पताल के साथ यह धोखाधड़ी नहीं है? प्रयोग में लाए गए बच्चों की जब मौते हुई तो अस्पताल की बदनामी तो हुई ही, आम आदमी का विश्वास भी उठा? इसी भरपाई कौन करेगा?
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