वन अधिकार अधिनियम की जानकारी लोगों तक पहुंचाने मीडिया आगे आये -श्री रावत
वन अधिकारों की मान्यता विषय पर मीडिया वर्कशॉप संपन्न
ग्वालियर 2 अप्रैल 08 । जंगल पर आश्रित लोग जंगल के दुश्मन नहीं अपितु दोस्त हैं । जंगल की रक्षा उनका धर्म है और उनके बिना जंगल की रक्षा असंभव है । इन्ही सब पहलुओं पर विचार कर सरकार ने अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वनवासियों के वन अधिकारों की मान्यता देने के लिये नया अधिनियम बनाया है। इस अधिनियम की सार्थकता तभी सिध्द होगी जब इसके बारे में उन लोगों को पूरी जानकारी होगी जिनके लिये यह अधिनियम बना है और जिन लोगों को इसे लागू करना है। यह सब अधिनियम के प्रचार प्रसार से ही संभव होगा और यह काम मीडिया बखूबी कर सकता है । उक्त आशय के विचार आदिम जाति कल्याण विभाग के प्रमुख सचिव श्री ओ.पी.रावत ने आज ग्वालियर में '' वनवासियों की मान्यता '' विषय पर आयोजित मीडिया कार्यशाला में व्यक्त किये । कार्यशाला में संभाग आयुक्त डा. कोमल सिंह, वन संरक्षक श्री सिन्हा, जिला कलेक्टर श्री राकेश श्रीवास्तव, अपर संचालक जनसंपर्क श्री आर एम पी सिंह, वनमंडलाधिकारी श्री पुरूषोत्तम धीमान, जिला पंचायत के मुख्य कार्यपालन अधिकारी श्री विनोद शर्मा व संयुक्त संचालक जनसंपर्क श्री सुभाष अरोरा सहित अन्य संबंधित अधिकारी मौजूद थे । आचरण के संपादक श्री रामविद्रोही, नवभारत के संपादक डा. सुरेश सम्राट, नई दुनिया के संपाक श्री राकेश पाठक, वरिष्ठ पत्रकार डा. केशव पांडेय व श्री राकेश अचल सहित प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के वरिष्ठ पत्रकारों ने इस कार्यशाला में भाग लिया ।
प्रमुख सचिव आदिम जाति कल्याण विभाग श्री रावत ने कहा कि अनुसूचित जाति और अन्य परम्परागत वननिवासी (वन अधिकारो की मान्यता) अधिनियम 2006 एवं नियम 2007 की जानकारी अधिक से अधिक लोगों तक सही रूप में पहुँचाने में सम्प्रेषण माध्यमों (प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया) महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं । उन्होंने कहा कि इस अधिनियम का प्रमुख उध्देश्य वनवासियों के सहयोग से जंगलों का संरक्षण करना है । अधिनियम इस सोच पर आधारित है कि वनवासियों को वनों की आमदनी का हिस्सा देकर बेहतर ढंग से वन संरक्षित किये जा सकते हैं ।
श्री रावत ने औपनिवेशिक काल में सन् 1864 में बने पहले फॉरेस्ट एक्ट, 1978 के दूसरे फॉरेस्ट एक्ट एवं 1927 में बने भारतीय वन अधिनियम का उल्लेख करते हुये कहा कि इन अधिनियमों में वनों की रक्षा के लिये किये गये तमाम कानूनी प्रावधानों के बावजूद वनों का रकबा लगातार घटता रहा । सरकार का मानना है कि इन अधिनियमों में वनवासियों के हितों की लगातार उपेक्षा होने से वन साफ होते जा रहे हैं । इसलिये वनों के सरंक्षण के लिये वनवासियों का संरक्षण भी आवश्यक है । इसी बात को ध्यान में रखकर नया वन अधिनिकार अधिनियम बनाया गया है । प्रमुख सचिव ने इस अवसर पर मीडिया प्रतिनिधियों से अधिनियम के व्यापक प्रचार-प्रसार का आव्हान किया ।
ग्वालियर संभाग के आयुक्त डा. कोमल सिंह ने कहा कि वन अधिकार अधिनियम का प्रमुख मकसद वंचितों को अधिकार व मान्यता दिलाना है । इसे लागू करने के लिये स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार विकेन्द्रीकृत व्यवस्था की गई है, जिसमें ग्रामसभा की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है । अधिनियम में सभी वनवासियों को लाभ देने का प्रावधान है अर्थात इसमें जाति, धर्म का कोई बंधन नहीं है । उन्होंने अधिनियम की जवाबदेही के लिये उपयोगी सुझाव भी दिये।
उल्लेखनीय है कि वन में निवास करने वाली ऐसी अनुसूचित जनजातियों और परम्परागत वन निवासियों के जो वनों में पीढ़ियों से निवास कर रहे हैं किन्तु उनके अधिकारों को अभिलिखित नहीं किया जा सका है । उनके वन अधिकारों और वन भूमि में अधिभाग को मान्यता देने के लिये अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम को जम्मू-कश्मीर राज्य के सिवाय संपूर्ण भारतवर्ष में लागू किया गया है । अधिनियम के उद्देश्यों में वन में निवास करने वाली अनुसूचित जनजातियों और अन्य परम्परागत वन निवासियों के मान्यता प्राप्त अधिकारों में, दीर्घकालीन उपयोग के लिये जिम्मेदारी और प्राधिकार शामिल हैं। जैव विविधता का संरक्षण और पारिस्थितिकी संतुलन को बनाये रखना और वन निवासियों की जीविका तथा खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करते समय वनों की संरक्षण व्यवस्था को सुदृढ़ करना भी सम्मिलित है । औपनिवेशिक काल के दौरान तथा स्वतंत्र भारत में राज्य वनों को समेकित करते समय उनकी पैतृक भूमि पर वन अधिकारों और उनके निवास को पर्याप्त रूप से मान्यता नहीं दी गई थी । जिसके परिणामस्वरूप वन में निवास करने वाली उन अनुसूचित जनजातियों और अन्य परम्परागत वन निवासियों के प्रति ऐतिहासिक अन्याय हुआ । पारिस्थितिकी प्रणाली को बचाने और बनाये रखने के लिये अभिन्न अंग है । इस अन्याय को समाप्त करने की दृष्टि से अब यह आवश्यक हो गया है कि वन में निवास करने वाली अनुसूचित जनजातियों और अन्य परम्परागत वन निवासियों की, जिसके अंतर्गत वे जनजातियां भी है, जिन्हें राज्य के विकास से उत्पन्न हस्तक्षेप के कारण अपने निवास दूसरी जगह बनाने के लिये मजबूर किया गया था। उनकी लंबे समय से चली आ रही भूमि संबंधी असुरक्षा तथा वनों में पहुंच के अधिकारों पर भी ध्यान दिया जाये । नया वन अधिनियम इन विसंगतियों को दूर करने की दिशा में किया गया सार्थक प्रयास है ।
पॉवर पाइंट प्रजेण्टेशन के जरिये दी गई अधिनियम की जानकारी
कार्यशाला में आदिम जाति कल्याण विभाग के अपर संचालक श्री ए के उपाध्याय ने पॉवर पाइंट प्रजेण्टेशन के जरिए अधिनियम के बनुयादी पहलुओं पर विस्तार से प्रकाश डाला । उन्होंने वन अधिकार व प्रावधान, वन समितियों, ग्राम सभा, उपखण्डस्तरीय समिति, जिला स्तरीय व राज्य स्तरीय समिति के कार्य, वन अधिकारों के निर्धारण के लिये साक्ष्य, ग्राम सभा की संरचना, काम काज की प्रक्रिया, विवादों का निपटान आदि के बारे में विस्तार से बताया ।
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