राजनीति : बहस से भागता विपक्ष
राकेश अचल
पिछले तीस वर्षों से मैं अक्सर ही सत्ताा प्रतिष्ठान को निशाने पर रखकर लिखता आ रहा हूँ। पहली बार मुझे विपक्ष पर निशाना साधना पड़ रहा है क्योंकि मध्यप्रदेश समेत देश के दूसरे हिस्सों में विपक्ष निस्तेज, असंयमित और सतही होता जा रहा हैं
मध्यप्रदेश में कांग्रेस पिछले सात साल से विपक्ष में है। कांग्रेस ने म.प्र. के गठन से लेकर अब तक ज्यादातर समय सत्ताा में रहकर बिताया है। पहले संविदा में, और बाद में 1977 से 1980 और 1990 से 1993 तक विपक्ष में बैठी कांग्रेस को पहली बार लगातार सात साल तक विपक्ष की भूमिका निभाना पड़ रही है।
नई भूमिका में कांग्रेस असहज दिखाई दे रही है। पिछले महीनों म.प्र. के विकास पर केन्द्रित म.प्र. विधानसभा के विशेष सत्र में विपक्ष ने पूरा समय प्रहसन, बहिष्कार और प्रदर्शनों में जाया किया। विषय प्रदेश के विकास का था, लेकिन उसे राजनीति से जोड़ दिया गया। विपक्ष की गैर मौजूदगी में सत्ताारुढ़ भाजपा को ''आओ अपना म.प्र. बनाएं'' विषय पर अकेले ही बोलना पड़ा। अर्थात् म.प्र. का कायाकल्प करने के बुनियादी अभियान में विपक्ष की न कोई भूमिका है न रुचि।
म.प्र. विधानसभा का पावस सत्र भी विशेष सत्र की ही तरह विपक्ष की उत्तोजना का शिकार हो गया। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के एक कथित बयान को लेकर विपक्ष ने पहले दो दिन तो हंगामा किया और तीसरे दिन सदन से बर्हिगमन किया। मुख्यमंत्री अपने बयान पर बोलना चाहते थे, विधानसभा अध्यक्ष विपक्ष की मांग पर बहस कराने को तैयार थे, किंतु विपक्ष सिर्फ सुर्खियों में रहना चाहता था।
विधानसभा में प्रतिपक्ष की नेता श्रीमती जमुना देवी की अनुपस्थिति में यह दायित्व ओढ़ने वाले कांग्रेस के अध्ययनशील विधायक चौधरी राकेश सिंह चतुर्वेदी के लिए यह अवसर अपनी नेतृत्व क्षमता के प्रदर्शन का था, किन्तु उन्होंने सदन में सतत् हंगामा कराकर यह अवसर गवां दिया।
विधानसभा का पावस सत्र आमतौर पर सरकारी कामकाज के अलावा प्रदेश के किसाानो की समस्याओं पर चर्चा के काम आता है। इस छोटे सत्र के जरिए विपक्ष सरकार से किसी भी वित्ताीय वर्ष की पहली तिमाही के कामकाज का हिसाब मांग सकता है, किन्तु किसी को जैसे इसकी फिक्र नहीं है।
पिछले तीन दशक में विपक्ष की असहिष्णुता का पहला अशोभनीय प्रदर्शन 19 जुलाई 2010 से शुरू हुए विधानसभा के पावस सत्र में देखने को मिला। मैंने पहली बार अनुभव किया कि विपक्ष गंभीर भूमिका में नहीं है। विपक्ष न तो सदन के नेता के रूप में मुख्यमंत्री का सम्मान कर रहा है और नहीं संवैधानिक प्रमुख विधानसभा अध्यक्ष की गरिमा की उसे चिंता है।
खचाखच भरी विधानसभा की दर्शक दीर्घाओं में बैठी प्रदेश की जनता ने, प्रेस ने और अतिविशिष्टजनों ने विपक्ष की नई भूमिका को ग्राह्य किया या नहीं, यह बताना कठिन काम है। सरल बात यह है कि किसी को भी विपक्ष का व्यवहार अच्छा नहीं लगा।
म.प्र. के संसदीय इतिहास में इतना लचर विपक्ष संभवत: पहले कभी नहीं रहा। विपक्ष के अमर्यादित व्यवहार से किसी भी संवेदनशील व्यक्ति का आहत होना स्वाभाविक है। कैमरों के सामने नारेबाजी करते विपक्ष से अब ज्यादा उम्मीद भी नहीं करना चाहिए।
किसी भी मुद्दे पर सरकार को कटघरे में खड़ा करना विपक्ष का नैतिक और संवैधानिक अधिकार है, किन्तु विपक्ष का यहर् कत्ताव्य भी है कि वह जिन मुद्दों को उठाता है, उन पर पहले पूरी गंभीरता से सरकार को भी सुने। इसके बाद भी अगर असंतोष हो तो पूरी तैयारी के साथ सरकार को घेरे। यह घेराव गला फाड़कर चिल्लाने, आसंदी का घेराव करने वाला नहीं होना चाहिए। यह घेराव अध्ययन से जुटाए गए आंकड़ों, तथ्यों और तर्कों के जरिए किया जाना चाहिए।
दुर्भाग्य यह है कि विधायक विधानसभा के अधिकांश सत्रों के लिए कोई विशेष तैयारी नहीं करते। विधानसभा के पुस्तकालय से सत्ताापक्ष समेत विपक्ष के बहुत कम विधायकों का रिश्ता है। लिखित सवाल पूछकर पूरे समय सदन में मूकदर्शक बनकर बैठे रहने वाले विधायकों की संख्या दिनों दिन बढ़ती जा रही है। विपक्ष में तालमेल का अभाव है। विपक्ष का एक नेता प्रश्नकाल को बाधित करता है तो दूसरा उसी प्रश्नकाल मेें सरकार से प्रश्न करता दिखाई देता है।
लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए विपक्ष की मौजूदा भूमिका हानिकारक है। हमारे पड़ोसी राज्यों में भी विधानसभाओं के पावस सत्रो के दौरान विपक्ष ने जो हंगामा, तोड़फोड़ और अभद्रता की, वह लज्जाजनक है। जाहिर है कि जनता द्वारा सरकार पर अंकुश लगाने के लिए चुने गए विपक्ष को जनता के वजूद की नहीं अपने वजूद की चिंता है। विपक्ष की यही चिंता वास्तव में चिंताजनक है।
म.प्र. के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी विपक्ष के साथ तालमेल नहीं बैठा पा रहे हैं। शिवराज सिंह चौहान की भावुक्ता बार-बार विपक्ष को उदण्ड बना रही है। मुख्यमंत्री का व्यवहार भी सदन में कई बार असहज दिखाई देता है। विधानसभा सत्र के चलते मुख्यमंत्री को भी चाहिए कि वे जोभी चर्चा करना चाहे वह सदन में करें। सीधे प्रेस से बतियाने से सदन की गरिमा कम होती है। कम से कम सदन के चलते तो प्रत्येक मुद्दे का उत्तार सदन में ही दिया जाना चाहिए। प्रेस से बतियाने के लिए बाकी के दिन पड़े ही है। उम्मीद की जाना चाहिए कि विपक्ष आने वाले दिनों में अपने कार्यव्यवहार की समीक्षा कर अपनी भूमिका में गुणात्मक परिवार जरूर लाएगा।
-लेखक प्रदेश के वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं।
achal.rakesh@gmil.com
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