शनिवार, 26 जुलाई 2008

वन अधिकार अधिनियम: एक भी हकदार वंचित न रहने पावे-प्रमुख सचिवश्री रावत संभाग स्तरीय प्रशिक्षण संपन्न

वन अधिकार अधिनियम: एक भी हकदार वंचित न रहने पावे-प्रमुख सचिवश्री रावत संभाग स्तरीय प्रशिक्षण संपन्न

 

ग्वालियर 25 जुलाई 08 अनुसूचित जाति और अन्य परम्परागत वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 एवं नियम 2007 का मध्यप्रदेश में तेजी से क्रियान्वयन किया जा रहा है । राज्य में अब तक हकदार आदिवासियों सहित वन संसाधनों पर पीढ़ी दर पीढ़ी आश्रित 1 लाख 59 हजार नागरिकों ने अपने दावे प्रस्तुत किये हैं । सर्वाधिक दावे ग्वालियर संभाग से प्राप्त हुये हैं जिसकी संख्या 40 हजार से भी अधिक है । यह जानकारी मध्यप्रदेश के आदिम जाति कल्याण विभाग के प्रमुख सचिव श्री ओ पी रावत ने आज यहां वन अधिकार अधिनियम क्रियान्यन जिला एवं जनपद स्तरीय समितियों के संभाग स्तरीय फाइनल प्रशिक्षण में दी। उन्होंने आगे कहा कि ग्वालियर एवं चंबल संभाग के भोले-भाले सहरिया आदिवासियों के दावे सही ढंग से बनें। उन्हें जाति प्रमाण पत्र अथवा साक्ष्य आदि की दिक्कतें न आवें इस का पूरा ख्याल रखा जावे। श्री रावत ने आगे कहा कि अधिनियम की मंशानुसार एक भी हकदार आदिवासी और अन्य परम्परागत वन निवासी अपने वाजिब अधिकार से वंचित न रह जावे। उन्होंने कहा कि व्यक्तिगत दावों के साथ-साथ सामुदायिक हितों वाले दावे जो समग्र ग्राम, ग्राम समूह के हित मसलन पूजा स्थल एवं श्मशान आदि  अथवा जातिगत छोटे समूहों के हितलाभ संरक्षण की दृष्टि से महत्वपूर्ण मसलन मत्स्याखेट स्थल आदि के भी दावे बनें, उनकी भी अनदेखी न होने पावे । साथ ही प्रमुख सचिव श्री रावत ने प्रशिक्षण में शामिल शासकीय अधिकारियों तथा अशासकीय सदस्यों की जिज्ञासाओं का भी समाधान किया ।

       संभागायुक्त डा. कोमल सिंह ने अधिनियम की बारीकियों को समझाते हुये अधिकारियों से दावों को सही रूप में तैयार करवाने एवं सूझबूझ पूर्ण नियमानुसार निराकरण की समझाईश दी । उन्होंने इस कार्य के लिये वन विभाग द्वारा पूर्व सकंलित सूचनाओं का भी लाभ लेने की सलाह दी । संभागायुक्त ने आगे कहा कि अधिनियम के तहत दावे बनाने में न केवल प्रोत्साहन राशि दी जावेगी अपितु अच्छा कार्य करने वालों को पुरस्कृत भी किया जावेगा ।

       संभाग स्तरीय प्रशिक्षण में भारतीय प्रशासनिक सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी श्री मोतीसिंह ने बतौर मुख्य प्रशिक्षक  अधिनियम के अमल की प्रक्रिया को सीधी-सरल भाषा में समझाते हुये वन अधिकार समिति , ग्राम सभा, उपखंड स्तरीय तथा जिला स्तरीय समिति के कार्यों का खुलासा किया । उन्होंने कहा कि जो आदिवासी 13 दिसम्बर 2005 को वनभूमि पर निवास अथवा अथवा खेती करता था व 31 दिसम्बर 07 को उसका काबिज अथवा उपभोगकर्ता था तथा अन्य परम्परागत वनवासी जो तीन पीढ़ियों से वन संसाधनों का उपभोगकर्ता है दावा दाखिल कर अपना वाजिब हक अर्जित कर सकते है । श्री सिंह ने स्पष्ट किया कि यह अधिकार दो प्रकार के हैं एक तो निवास तथा खेती की वनभूमि पर अधिकार व दूसरा लघु वनोपज, जलाऊ लकड़ी आदि के संग्रह का अधिकार साथ ही सामुदायिक स्थलों मसलन मत्स्याखेट, सरबोझ जलाऊ लकड़ी संग्रहण, पूजा स्थल आदि आदि का उपयोग जैसे अधिकार । उन्होंने ऐसे सभी प्रकरणों के दावों के तकनीकी पक्षों पर भी प्रकाश डाला तथा जटिल प्रकरणों के निराकरण की भी विधि उदाहरण देकर समझाई ।

       उल्लेखनीय है कि वन में निवास करने वाली ऐसी अनुसूचित जनजातियों और परम्परागत वन निवासियों के जो वनों में पीढ़ियों से निवास कर रहे हैं किन्तु उनके अधिकारों को अभिलिखित नहीं किया जा सका है । उनके वन अधिकारों और वन भूमि में अधिभाग को मान्यता देने के लिये अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम को जम्मू-कश्मीर राज्य के सिवाय संपूर्ण भारतवर्ष में लागू किया गया है । अधिनियम के उद्देश्यों में वन में निवास करने वाली अनुसूचित जनजातियों और अन्य परम्परागत वन निवासियों के मान्यता प्राप्त अधिकारों में, दीर्घकालीन उपयोग के लिये जिम्मेदारी और प्राधिकार शामिल हैं। जैव विविधता का संरक्षण और पारिस्थितिकी संतुलन को बनाये रखना और वन निवासियों की जीविका तथा खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करते समय वनों की संरक्षण व्यवस्था को सुदृढ़ करना भी सम्मिलित है । औपनिवेशिक काल के दौरान तथा स्वतंत्र भारत में राज्य वनों को समेकित करते समय उनकी पैतृक भूमि पर वन अधिकारों और उनके निवास को पर्याप्त रूप से मान्यता नहीं दी गई थी । जिसके परिणामस्वरूप वन में निवास करने वाली उन अनुसूचित जनजातियों और अन्य परम्परागत वन निवासियों के प्रति ऐतिहासिक अन्याय हुआ । पारिस्थितिकी प्रणाली को बचाने और बनाये रखने के लिये अभिन्न अंग है । इस अन्याय को समाप्त करने की दृष्टि से अब यह आवश्यक हो गया है कि वन में निवास करने वाली अनुसूचित जनजातियों और अन्य परम्परागत वन निवासियों की, जिसके अंतर्गत वे जनजातियां भी है, जिन्हें राज्य के विकास से उत्पन्न हस्तक्षेप के कारण अपने निवास दूसरी जगह बनाने के लिये मजबूर किया गया था। उनकी लंबे समय से चली आ रही भूमि संबंधी असुरक्षा तथा वनों में पहुंच के अधिकारों पर भी ध्यान दिया जाये । नया वन अधिनियम इन विसंगतियों को दूर करने की दिशा में किया गया सार्थक प्रयास है ।

      आज के इस प्रशिक्षण में ग्वालियर जिला पंचायत की अध्यक्ष श्रीमती धन्नोबाई, ग्वालियर व चंबल संभाग के सभी जिला कलेक्टर,  मुख्य कार्यपालन अधिकारी,  जिला एवं जनपद स्तरीय समितियों के शासकीय एवं अशासकीय सदस्यगण शामिल थे ।

 

वनों का संरक्षण आवश्यक

औपनिवेशिक काल में सन् 1864 में बने पहले फॉरेस्ट एक्ट, 1978 के दूसरे फॉरेस्ट एक्ट एवं 1927 में बने भारतीय वन  अधिनियमों में वनों की रक्षा के लिये किये गये तमाम कानूनी प्रावधानों के बावजूद वनों का रकबा लगातार घटता रहा । सरकार का मानना है कि इन अधिनियमों में वनवासियों के हितों की लगातार उपेक्षा होने से वन साफ होते जा रहे हैं । इसलिये वनों के सरंक्षण के लिये वनवासियों का संरक्षण भी आवश्यक है। इसी बात को ध्यान में रखकर नया वन अधिकार अधिनियम बनाया गया है ।

 

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