शनिवार, 27 जून 2009

जल संकट से बचने का उपाय मात्र जल संरक्षण

जल संकट से बचने का उपाय मात्र जल संरक्षण

निर्मल रानी

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       देश इस समय भीषण गर्मी का प्रकोप झेल रहा है। इसे तरह-तरह का नाम दिया जा रहा है। कोई इसे मौसम के बदलते मिंजाज के नाम से संबोधित कर रहा है तो कई पर्यावरण विशेषज्ञ इस प्रत्येक वर्ष निरन्तर बढ़ती जाने वाली गर्मी को 'ग्लोबल वार्मिंग' की संज्ञा दे रहे हैं। जबकि कुछ लोग इस लगातार पड़ने वाली तेंज गर्मी के लिए पश्चिमी देशों को ंजिम्मेदार ठहरा रहे हैं। इन लोगों का मानना है कि उद्योग एवं विकास के साथ-साथ युद्ध की परिस्थितियों ने भी पृथ्वी पर भीषण गर्मी को न्यौता दिया है जो अभी भी जारी है। जबकि तमाम विकसित देश दिन प्रतिदिन बढ़ते जा रहे औद्योगिकरण तथा प्रतिदिन लाखों नए वाहनों के सड़कों पर आने के परिणामस्वरूप पैदा होने वाले प्रदूषण को इस प्रचण्ड गर्मी का ंजिम्मेदार ठहरा रहे हैं। कारण चाहे जो भी हो परन्तु इस गर्मी से राहत पाने का एकमात्र उपाय जल ही होता है, जिसकी तलाश में गर्मी से प्रभावित लोग इधर-उधर भटकते तथा जल प्राप्त करने के उपाय करते दिखाई देते हैं।

              अभी कुछ वर्ष पूर्व देश के कई राज्यों में हंजारों लोग इसी भीषण गर्मी की चपेट में आकर अपनी जान गंवा बैठे। वर्ष 2003 में पड़ी इस भयानक गर्मी में एक हंजार से अधिक लोग तो अकेले आन्ध्र प्रदेश राज्य में ही भीषण गर्मी की भेंट चढ़े थे। यहां नालगुण्डा ंजिला सबसे अधिक प्रभावित हुआ था जहां 600 लोगों को भीषण गर्मी के प्रकोप ने निगल लिया था। उस समय ऐसी सूचनाएं प्राप्त हुई थी कि नालगुण्डा में हुई इन सर्वाधिक मौतों की संख्या और भी कम हो सकती थी परन्तु वहां जल के भीषण अकाल के चलते सबसे अधिक लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। पानी के अकाल का यही वह समय था जबकि राजस्थान में भी प्राईवेट टैंकर मालिकों ने 5 रुपए से लेकर 10 रुपए प्रति बाल्टी की दर से ंजरूरतमंदों को जल की बिक्री की थी। मध्य प्रदेश व गुजरात राज्यों में जल के लिए उसी समय ऐसा हाहाकार मचा था कि कई स्थानों से तो जल के लिए संघर्ष होने के भी समाचार प्राप्त हुए थे। अब तो देश के दिल्ली, हरियाणा व पंजाब जैसे राज्य जिन्हें कि कृषि के क्षेत्र में अग्रणी होने के साथ-साथ जल संसाधनों के क्षेत्र में भी आत्म निर्भर समझा जाता था, अब जल संकट का सामना कर रहे हैं।

              जल के क्षेत्र में कार्य करने वाले विशेषज्ञ तो अब यहां तक कहने लगे हैं कि यदि भीषण गर्मी का प्रकोप यूं ही जारी रहा तथा साथ-साथ धरती के गर्भ से जल का अनावश्यक एवं बेतहाशा दोहन भी इसी प्रकार होता रहा तो कोई आश्चर्य नहीं कि देश का अधिकांश भाग बंजर भूमि तथा रेगिस्तान के रूप में परिवर्तित हो जाए। जल संकट की समस्या मात्र हमारे ही देश की समस्या न होकर यह एक विश्वस्तरीय त्रासदी के रूप में सामने आ रही है। यही कारण है कि अब इस प्रकार की चर्चा भी सुनाई दे रही है कि दुनिया को भविष्य में जल स्त्रोतों पर वर्चस्व हासिल करने के लिए होने वाले अगले युद्ध के लिए भी मानसिक रूप से तैयार रहना चाहिए।

              जल आपूर्ति की कमी के लिए प्राय: जनता सीधे तौर पर सरकार को दोषी ठहरा देती है। परन्तु जल की बर्बादी में तथा उसका समुचित संरक्षण न कर पाने में जनता का अपना कितना योगदान है, उसे वह नंजरअंदांज नहीं कर सकती। जलापूर्ति की कमी का दोष केवल सरकार पर मढ़ा जाना हरगिंज मुनासिब नहीं होगा। आंखिर जनता द्वारा लगातार व लगभग हर समय जल के दुरुपयोग किए जाने पर सरकार किस तरह निगरानी रख सकती है। प्राय: साधन सम्पन्न वे लोग  जिन्होंने अपने-अपने घरों में ऊंची मंजिलों पर टंकी में पानी चढ़ाने के लिए अवैध रूप से मोटर पम्प लगा रखे हैं, इसकी वजह से जल का दुरुपयोग भी होता है तथा जनता में जल का समान वितरण भी प्रभावित होता है। रबड़ के पाईप लगाकर अपनी कारें, ंफर्श तथा लॉन आदि पर लगातार पानी डालना तो धनाढय एवं नवधनाढय लोगों की ंफितरत में शामिल हो चुका है। वास्तविकता एवं कटु सत्य तो यह भी है कि समाज के यह तथाकथित संभ्रान्त लोग भी हमारे देश के जल भंडारण को प्रभावित करने तथा देश को समय से पूर्व जल संकट की ओर धकेलने के कम ंजिम्मेदार नहीं हैं। कई स्थानों से नलों के ऊपर से टोंटी ही नदारद दिखाई देती है। परिणामस्वरूप जलापूर्ति होने पर पानी निर्बाध रूप से व्यर्थ बहता रहता है। मात्र दो दशक पूर्व जिन कुओं में आठ-दस ंफीट की गहराई पर जल दिखाई देता था आज वही कुएं पूरी तरह सूखे पड़े हैं। तमाम झीलें, तालाब व जोहड़ सूखे नंजर आ रहे हैं। कितने अंफसोस व चिन्ता का विषय है कि प्रकृति द्वारा नि:शुल्क रूप से अपने प्रिय प्राणियों को उपलब्ध कराई गई जल रूपी एक ऐसी बेशंकीमती सौगात का हम संरक्षण भी नहीं कर पाते जिसके बिना हमारा जीवन ही असम्भव है।

              इसके लिए सरकारों पर दोष मढ़ना या उसके रहमोकरम की आस रखना हरगिंज उचित नहीं। जनता को स्वयं इसके लिए जागरूक होने तथा एक दूसरे को जागरूक करने की सख्त ंजरूरत है। इसके लिए सर्वप्रथम तो हमें जलसंकट की समस्या के प्रति गम्भीर होना होगा। उसके पश्चात जल के दुरुपयोग को रोके जाने की आवश्यकता है। फिर हमें उन उपायों को अपनाने की ंजरूरत है जो जल संरक्षण के लिए सहायक सिद्ध हो सकते हों। पहले तो हमें यूकेलिप्टस तथा संफेदा जैसे उन वृक्षों के पौधारोपण से परहेंज करना चाहिए जो धरती के जलस्तर को और अधिक कम करने में सहायक सिद्ध होते हैं। आजकल देखा जा रहा है कि शीघ्र करोड़पति बनने की चाह में तमाम लोग ऐसे वृक्ष लगा रहे हैं जो पांच-छ: वर्षों में ही तैयार हो जाते हैं। इस सोच में बदलाव लाने की ंजरूरत है। सरकार को ऐसे वृक्ष प्रतिबंधित कर देने चाहिए तथा जनता को इसमें सहयोग देना चाहिए। नव निर्मित होने वाले मकानों में लैंड रिचार्जिंग सिस्टम को अनिवार्य कर देना चाहिए। इस प्रणाली के तहत मकान की छत पर इकट्ठा होने वाला बारिश का पानी एक विशेष पाईप के माध्यम से सीधा धरती में प्रवेश कर जाता है। तथा उस मकान के व उसके आसपास के जलस्तर को सामान्य बनाए रखने में सहायक होता है। यह प्रणाली नव निर्मित होने वाले मकानों में तो अनिवार्य रूप से अपनाई जानी चाहिए साथ-साथ पुराने मकानों के स्वामियों को भी अपने मकानों में ऐसी प्रणाली का प्रबंध करना चाहिए।

              बारिश के दिनों में वर्षा का जल ढालदार क्षेत्रों की ओर बहता दिखाई देता है। यह जल निचली जगहों पर अपना स्थान बना लेता है तथा लम्बे समय तक अनावश्यक रूप से रुका रहता है। परिणामस्वरूप जिस ंजमीन पर बरसात का यह पानी रुकता है वहां की खेती प्रभावित होती है तथा मच्छर व जल में पैदा होने वाले अन्य कीड़े-मकोड़े अनैच्छिक रूप से जन्म लेते हैं। इससे बीमारी फैलने का ंखतरा बढ़ जाता है। जल का इस प्रकार का एक बड़ा भण्डार इसी प्रकार बिना किसी प्रयोग में आए सूख-सूख कर समाप्त हो जाता है। कई स्थानों पर तो यही रुका हुआ जल नदियों व नालों के बढ़े हुए पानी से मिलकर बाढ़ का रूप धारण कर लेता है तथा विनाश का कारण बन जाता है। ऐसे तमाम क्षेत्रों में बड़े कुएं के रूप में लैंड रिचार्जिंग सिस्टम बनाए जाने चाहिए जहां बरसात का पानी व्यर्थ रूप से नष्ट होने के बजाए धरती के भीतर समा जाए। यदि यथाशीघ्र सम्भव जल संकट रूपी इस विकट समस्या के प्रति हम जागरूक नहीं हुए तथा जल संरक्षण के शीघ्र उपाय नहीं किए तो निश्चित रूप से हमारी इन ंगलतियों का परिणाम हमारी ही अगली पीढ़ियों को भुगतना पड़ेगा। परन्तु शायद तब तक देर हो चुकी होगी और हमारी इन ंगलतियों व लापरवाहियों के लिए हमारी ही सन्तानें हमें क्षमा करने के योग्य भी नहीं समझेंगी। अत: यदि हम इस वास्तविकता को स्वीकार करते हैं कि 'जल ही जीवन है' तो उस 'जीवन' की रक्षा करने की ंजिम्मेदारी भी हमारी और सिंर्फ हमारी ही है।

 

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