गांव की गलियों में अब बस बायोगैस चूल्हों की गूंज
आलेख- जे. पी. धौलपुरिया, उप संचालक, जिला जन सम्पर्क कार्यालय, शहडोल म. प्र.
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शहडोल / आदिवासी बाहुल्य शहडोल जिले के कई गांवों में ग्रामीण महिलाओं को जैसे अब लकड़ियों के चूल्हों पर भोजन बनाना रास नहीं आ रहा है । गांव के रसोईघरों में अब इनकी जगह बायोगैस चूल्हा लेने लगे हैं । बायोगैस चूल्हों की खूबियों के कारण ग्रामीण महिलाओं का रूझान बड़ी तेजी से इनकी तरफ बढ़ रहा है ।
आधुनिकता के इस दौर में लकड़ी ईंधन चूल्हों के स्थान पर बायोगैस से चलने वाले चूल्हों के इस्तेमाल को बढ़ावा देने के पीछे मध्य प्रदेश ग्रामीण आजीविका परियोजना शहडोल का कम योगदान नहीं है । देश में घटते जंगलों की किल्लत को ध्यान में रखते हुए परियोजना ने शहडोल जिले के करीब 140 गांवों में जंगल को बचाने और भोजन बनाने में बायोगैस के प्रचलन को बढ़ाने के लिए लोगों में जागरूकता फैलाई, ताकि आनेवाले समय में लकड़ियों की समस्या को कुछ कम किया जा सके । अंदाजन एक परिवार द्वारा प्रतिदिन 10-12 कि.ग्रा. सूखी लकड़ियां ईंधन के रूप में इस्तेमाल की जाती हैं और अकेला परिवार सालभर में लगभग 2.2 टन लकड़ियों का प्रयोग ईधन के रूप में कर लेता है । अब अंदाजा लगाइए कि पूरा गांव सालभर में कितनी लकड़ियां जला लेता होगा ।
लिहाजा जिले के आदिवासी बाहुल्य गांव महरोई समेत कई गांवाें में जंगल बचाने और बायोगैस का इस्तेमाल बढ़ाने की मुहिम चलाई गई । नतीजतन गांवों में किसानों के घरों में बायोगैस संयंत्र आकार लेने लगे । महिलाओं को तो मानों बहुत बड़ा उपहार मिल गया हो। पहले लकड़ियों पर खाना बनाने से उठता तेज धुंआ फैंफड़ों में जाता था, जिससे वे फैंफड़ा जन्य बीमारियों से ग्रस्त हो जाया करती थीं । लकड़ियों के निकले धुंए से बर्तन काले हो जाते थे और भोजन बनाने में बक्त भी बहुत लगता था । बरसात में तो लकड़ियों में सीलन बैठने से और अधिक परेशानी हुआ करती थी । लेकिन महिलाओं को अब इन सारी परेशानियों से निजात मिल गई है।
अकेले महरोई गांव में परियोजना के सहयोग से लकड़ियां चूल्हों की जगह तेजी से बायोगैस चूल्हे लेने लगे । इस गांव के करीब 28 घरों में बायोगैस चूल्हों पर खाना बनने लगा है। इससे गांव में प्रतिवर्ष 22400 रूपये मूल्य की 56 टन लकड़ियों की बचत हो रही है । परियोजना द्वारा इस वित्तीय वर्ष में कई गांवों में 560 बायोगैस संयंत्रों का निर्माण कराया जा चुका है तथा जुलाई 2009 तक 750 संयंत्रों के निर्माण का लक्ष्य रखा गया है । बायोगैस से बनाए जाने वाले भोजन के प्रति लोगों का बेतहाशा रूझान बढ़ा है । परिवर्तन की लहर के साथ ही बायोगैस संयंत्रो से निकलने वाला जैव खाद भी खेतों को मिलने लगा है । गांवों में बायोगैस संयत्रों की संख्या बढ़ने से बायोगैस से भोजन और चाय बनाने या दूध गर्म करने वाली महिलाओं की संख्या भी बढ़ती गई है। बायोगैस चूल्हें का इस्तेमाल इतना आसान है कि कम उम्र की लड़कियों को भी इसके इस्तेमाल में कोई परेशानी नहीं होती ।
महरोई गांव में बायोगैस संयंत्रों की स्थापना के लिए सरकार ने हरसंभव इमदाद दी । बायोगैस का प्रचलन बढ़ाने के लिए सरकार की इस परियोजना ने अनुदान उपलब्ध कराकर गांव में बायोगैस संयंत्रों का जाल फैलाने की योजना बनाई । घरों में बायोगैस के चलन से रसोई घर के स्वरूप में आमूलचूल परिवर्तन हुआ है तथा इसकी गूंज गावं की गलियों तक पहुंच चुकी हैं । बगैर खर्च में अधिक फायदेमंद होने के कारण इसको ग्रामीण्ा समाज से फौरन आत्मसात कर लिया । महिलाओं की प्रसन्नता का तो जैसे कोई अंदाजा ही नहीं है । बायोगैस के इस्तेमाल से अपनी दिनचर्या बदलने वाली प्रतिभा नट का कहना था कि बायोगैस ने जहां धुंए से निजात दिला दी और भोजन पकाने के समय में बचत कर दी, वहीं बायोगैस के अवशिष्ट यानि खाद ने उसकी फसल के उत्पादन को दो गुना तक बढ़ा दिया है । श्यामबाई बताती हैं कि बायोगैस से खाना बनाने की उनकी खुशी का ठिकाना नहीं है ।
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