के.एस. आयल्स बनाम रमेश चन्द्र गर्ग : खाकशाह से भामाशाह और शहंशाह तक का सफर -2
नरेन्द्र सिंह तोमर ''आनन्द''
कुतवार के बनिये बेहद समृद्धि शाली थे पहले बैंक वगैरह नहीं होतीं थी सो अधिकतर लोग अपना माल जमीन में तहखाने खोद कर जिन्हें अक्सर गॉंवों में खौंह कहा जाता है में बड़े बक्सों, घड़ों , कलसों, तम्हेडि़यों जैसी चीजों में या सीधे ही नांद या चपटों में जमीन में गाड़ का दबा कर रखते थे । भय व आतंक से भागे बनियों के मालमत्ते केवल कुतवार ही नहीं बल्कि अधिकांश गॉंवों में रह गये । कुतवार पर मुझे रिसर्च का मौका मिला । बनियों की खाली पड़ी हवेलियों और दूकानों पर आसपास रहने वाले तथा इधर उधर से रिश्तेदारों आदि को बुला कर काछीयों ने कब्जे कर लिये । बमुश्किल अपवाद स्वरूप दीगर जाति का एकाध आदमी ही बनियों के खाली पड़े मकानों तक पहुँचा । बनियों की खेती की जमीनों पर भी काछीयों का कब्जा हो गाया । बनिये सब जान कर भी चुप रहे और यही सोचते रहे कि चलो इस बहाने मकानों दूकानों की देख रेख साफ सफाई भी होती रही , ठौर सुरक्षित रहेगा तथा शान्ति आने पर वापस लौट जायेंगे । और दबे माल की जानकारी काछीयों को तो है नहीं सो वो भी सुरक्षित रहेगा ।
बची खुची पुंजी जो वे साथ लेकर आ सकते थे यानि कैश इन हैण्ड के साथ में मुरैना या अन्य कस्बों, अम्बाह पोरसा सबलगढ़, पहाड़गढ़, बामौर, जौरा, कैलारस जैसी जगह थोड़ी बहुत जमीन मकान लेकर या मकान आदि बनवा कर छोटे छोटे काम धंधे और व्यवसाय प्रारंभ कर दिये साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में शांति का इंतजार करते रहे ।
चम्बल में दिक्कत ये थी कि एक डकैत या बागी गिरोह से छुटकारा मिलता और दूसरा पैदा हो जाता । बनिये सब्र धारण कर कभी अपने अपने क्षेत्र में साहूकार, सेठ जी, नगर सेठ, जमीन्दार, जागीरदार, वसूलीदार, चौधरी आदि नामों से जाने जाने वाले लोग जिन्होंने प्रतिष्ठा और वैभव की जो दुनियां देख रखी थी और समृद्धि का उनका जो इतिहास था उन्हें बार बार याद आता । लेकिन भारी कष्ट आर्थिक विपन्नता और तंगहाली झेल कर भी बनिये महज आस पर जिन्दा बने रहे हालांकि कई बनिये पागल भी हो गये, और अपना छोटे मोटे कारोबार के साथ ही अपना और परिवार का पेट पालते रहे ।
इधर ये होता रहा उधर उनके मकानों पर काबिज हुये काछीयों ने उनके खजानों की सुगन्ध पा ली और धीरे धीरे कुतवार में काछीयों ने खोज खोज कर खुदायी शुरू की । और बनियों के खजाने काछीयों के हाथ लगते गये , काछी मालदार होते चले गये, अब तो शायद ही कुछ जगह मात्र बची हैं जहॉं अभी माल शेष बचा रह गया है और वह जगह भी केचल उन्हीं बनियों को या उनके बच्चों को ही मालुम है । अब क्षेत्र में डाकूओं और बागीयो का आतंक नहीं रहा , शान्ति है बनिये इस बीच में जा जा कर थोड़ा बहुत माल गुप्त रूप से निकाल कर लाते भी रहे , लेकिन उनका अधिकांश माल काछीयों ने ही निकाल लिया ।
बात दबे खजाने की है अत: कई झगड़े विवादों के बावजूद भी दोनों में से एक भी पक्ष पुलिस या सरकार के पास नहीं गया । मुझे कुछ बनिये अपने घर ले गये और मुझे काछीयों द्वारा खुदायी के चिह्न व सुरंगें दिखाईं । मजे की बात ये रही कि दोनों ही पक्ष स खजाने के लिये जो कि बनियों का खुद का पैतृक और काछीयों लिये छप्पर फाड़ के आ टपकने वाला था जम कर तंत्र मंत्र यंत्र और पूजा पाठ कराते रहे ।
बनियों के काफी दौलतखाने यूं ही बेआवाज लुट गये ।
तब उधर सन 1972 में माधौ सिंह मोहर सिंह, माखन सिंह आदि के गिरोहों के ऐतिहासिक समर्पण के बाद एक तरफ मंहगायी ने सिर चढ़कर भन्नाना शुरू किया उधर शहरों कस्बों विशेष कर जिला मुख्यालय मुरैना पर बनियों ने ही राजनीति व नेतागिरी का दामन भी व्यवसाय के साथ संभाल लिया ।
उधर नहर आने के बाद हालांकि जिले में सरसों तथा अन्य फसलों एएवं गन्ना आदि की पैदावार तो शुरू हो चुकी थी लेकिन वह फिर भी बहुत कम थी तथा उतनी नहीं होती थी, ऊपर से चकबन्दी, नसबन्दी, मंहगायी, लेव्ही आदि से गॉवों और शहरों में भारी खौफ था । शहरों और गॉंवों में लोग डरे और दुबके रहते थे तथा किसी भी सरकारी आदमी को या सरकारी टीम को देख कर शहर गॉंव छोड़ कर भाग जाते थे । शक्कर उस समय बेहद मंहगी हो गयी थी शक्कर का दाम उस समय 8 स्पये किलो पर पहुंच गया था उधर देश में आपातकाल लागू कर दिया गया था । जरा सा भी विरोध करने वाले को जेल में ठूंस दिया जाता था, मीसा में बन्द कर उसका खीसा निपोर दिया जाता था यह भी पता नहीं लगता था कि कहॉ की किस जेल में बन्द है , मर गया या अभी तक जिन्दा है ।
चारों ओर दहशत ही दहशत और खौफ का मंजर था । उधर उसी समय नब्बा कुम्हार चम्बल में फरार हो गया नब्बा डाकू या नब्बा बागी बनियों का बहुत बड़ा दुश्मन था और बनियों में उसेकी भारी दहशत और खौफ था । उसने जींगनी मुरैना के एक बम्बे के पास एक यात्री बस को गोलीयां चला कर रोकने की कोशिश की लेकिन ड्रायवर ने गाड़ी भगाने की कोशिश की संकरी ऊबड़ खाबड़ सड़क, कण्डम डिब्बा सरकारी बस ने अधिक साथ नहीं दिया , कण्डक्टर को गोली लग गई , ड्रायवर को गाड़ी रोकनी पड़ी और नब्बा यात्रीयों की पकड़ कर के सफलता पूर्वक पहले क्वारी नदी के और फिर चम्बल के बीहड़ों में गुम हो गया ।
लोग खेतों में उर्वरकों के प्रयोग से दहशत खाते थे और अपने खुद के घूरे की ही खाद खेतों में देते थे । लोगों के पास नहर होने के बावजूद उसमें से पानी लेने का कोई साधन नहीं था , सिंचाई अधिकारी और सरकार किसानों के लिये नहरों पर कुलावे मंजूर नहीं करते थे, एक कुलावा बनवाने के लिये बहुत बड़ी सिफारिशों की जरूरत होती थी जो किसानों के पास नहीं होती थी, भ्रष्टाचार व रिश्वत उन दिनों अधिक नहीं था , किसानों के पास पैसे ही नहीं होते थे सरकारी अफसरों की तनख्वाहें भी अधिकांशत: तीन सौ या पॉंच सौ रूपये मात्र होतीं थीं जिसमें महीना भर घर चलाने के लाले पड़े रहते थे फिर बाबूओं की दशा तो और भी ज्यादा खराब थी । इसके बावजूद लोग न रिश्वत लेते थे न भ्रष्टाचार करते थे क्योंकि किसी के पास कुछ भी लेने देने को था ही नहीं ।
मरल में मिलावट उन दिनों नहीं की जाती थी, देशी घी जो कि चम्बल का बहुत मशहूर रहा है या फिर तेल हो या बूरा या अन्य कुछ एकदम शुद्ध और स्वच्छ मिलता था , घी रई का बहुत मशहूर और तेल कच्ची घानी का , दोनों ही बहुतायत से उपलग्ध और मारे मारे फिरते थे देशी घी का दाम पहले चार रूपये किलो था जो मंहगाई आने पर छ: स्पये किलो हो गया था इसके बावजूद एकदम शुद्ध मिलता था अज्ञेर मारा मारा फिरता था । दरअसल असल माल ही सड़ता रहता था उसी का कोई खरीददार नहीं होता था तो फिर मिलावट करनी ही नहीं पड़ती थी । शुद्ध माल और कम कीमत के माल के लिये चम्बल देश भर में विख्यात रही इसका फल ये मिला कि यहॉं का माल धीरे धीरे बाहर सप्लाई होने लगा आयात निर्यात के शुरू होते ही चम्बल की तकदीर के बदलाव का फिर एक नया अध्याय शुरू हुआ । लेकिन तब भी बनियों को माल खरीदने के लिये गॉंव गॉव किसानों के घर घर जाना पड़ता था यह काम उन गॉंवों में या आसपास के गॉवों में शेष बचे बनिये अपने आसपास के गॉंवों से माल इकठ्ठा कर शहर के बनियों को पहुंचाते थे और बीच में कमीशन या दलाली या आढ़त निकाल कर खाते थे , इससे स्थानीय ग्रामीण बनियों और शहर के बनियों दोनों को ही माल व धन्धा मिल जाता था, और किसानों को नकद पैसा । इन आढ़त निकाल कर खाने वाले बनियों को समय रहते आढ़तिये कहा जाने लगा । आढ़तियों ने बेशक चम्बल में ब्रिगड़ी ग्रामीण अर्थव्यवस्था को धीरे धीरे पटरी पर लाना शुरू किया । लेकिन बाद में इसी दलाली ने बहुत खतरनाक रूप धारण कर किसानों का जम कर शोषण भी किया ।
आढ़तियों की माल आवक से कुछ व्यापारी पैदा हो गये और आयात निर्यात से मोटा माल बनाने लगे, सेठ फिर पैदा हुये गद्दियां फिर कायम होने लगीं । मुरैना में जीवाजी गंज जहॉं बड़े बनिये रहते थे और काफी खुला मैदान था मण्डी में तब्दील हो गया और अनाज या दाल दलहन के लिये खरीद फरोख्त की मण्डी के रूप में विकसित हो गया । किसाानों को जब ये राज मालुम हुआ कि आढ़तिया उन्हें कम पैसा देता है और मण्डी में बनियों को सीधा माल बेचने पर अधिक पैसा मिलता है तो वे अपना माल लाद कर सीधे मण्डी पहुँचने लगे और मुनाफा कमाने लगे । मण्डी ने भी विशाल रूप धारण किया और दो अलग अलग ब्लाक बन गये सिकरवारी के बनिये सिकरवारी ब्लाक और तोमरघार के बनिये तंवरघारी ब्लाक में क्षेत्रवार माल लगवा कर खरीदने लगे । उधर किसानों ने धीरे धीरे अंग्रेजी खाद यानि उर्वरकों का प्रयोग शुरू करने की कोशिश की पहले रेखड़ा आजमाया गया , यूरिया को लेकर अंचल में काफी अफवाहें थीं और किसान यूरिया का प्रयोग करने से भारी डरते थे । लोगों का कहना था कि यूरिया एक बार जिस खेत में डल गया उस खेत को खत्म ही समझों उसमें फिर गोबर घूरे की खाद कोई असर नहीं करती और हर बार यूरिया ही डालना पड़ेगा । अत: क्षेत्र में यूरिया का प्रयोग काफी विलम्ब से शुरू हुआ , लेकिन कुछ तब के आधुनिक प्रयोगधर्मी किसानों ने हिम्मत दिखाई और खेतों में यूरिया डाला । फसल कई गुना अधिक और कई गुना फायदा देख यूरिया का प्रचलन अंचल में धीरे धीरे शुरू हुआ ।
मुरैना में एक बड़ा सरसों के तेल का करखाना लग गया और राठी इण्डस्ट्रीज के नाम से इस तेल कारखाने ने क्षेत्र के सरसों उत्पादकों को कई हौसले दिये । राठी परिवार का तेल उद्योग जहॉं काफी विख्यात और चमबल को नयी जीवनरेखा देने वाला था वहीं राठी परिवार की पहचान भी नगर सेठ के रूप में हो गयी । और राठी नाम चम्बल में चारों ओर गूंजने लगा , राठी परिवार पर भी काफी अनाप शनाप दौलत आने लगी । लेकिन राठी परिवार ने पैसा कमा कर भी मुरैना के तेल का नाम देश भर में विख्यात कर दिया, राठी तेल उद्योग में तेल में मिलावट नहीं की जाती थी, न व्यवसाय बढ़ाने के औने पौने औछ हथकण्डे इस्तेमाल किये जाते थे । न उस समय बिजनिस एक्जीक्यूटिव्हज या एम.बी.ए. प्रोफेशनल होते थे । लेकिन एकदम शुद्ध व गुणवत्ता युक्त आधुनिक मशीनों और बड़ी मशीनों से बड़े स्तर पर बृहद तेल उत्पादन के इस कारखाने ने मुरैना के तेल की धाक देश भर में बुलवा दी और अपना सिक्का मनवा लिया ।
मुरैना के सरसों उत्पादन को नया जीवन और नया बल मिला सरसों काफी फायदेमंद खेती बन गई मुरैना पूरे देश को तेल पिलाने लगा । तब तक के.एस. आयल इण्डस्ट्रीज जैसी इकाईयों का कोई वजूद व वर्चस्व नहीं था ।
राठी परिवार को तेल से मालामाल होते देख जहॉं कई बनियों की महात्वाकांक्षायें जागने लगीं वहीं कई बनिये राठी परिवार के लिये अपने अपने घरों, गोदामों, प्रतिष्ठानों में स्पेलर्स लगा कर तेल पेर कर रेडीमेड तेल कारखाने को सप्लाई करने लगे । माल की बढ़ती मांग और अधिक खपत तथा पूर्ति में कमी के मद्दे नजर राठी तेल उद्योग अपने कारखाने में पैदा हुये तेल के साथ अन्य बनियों द्वारा प्रदत्त तेल के साथ मिला कर पैकिंग करवा कर बाहर भिजवाने लगा । इस तरह तेल उत्पादन की कई छोटी मोटी दो नंबर की कई गुप्त यूनिटें शहर व कस्बों में पैदा हो गयी । एक समय के नामी गिरामी इस तेल उद्योग के सामने समस्याओं व कठिनाईयों का दौर उस वक्त प्रारंभ हुआ जब प्रतिद्वंद्विता में कल्लूमल सांवलदास यानि के.एस. परिवार के ओमप्रकाश गर्ग और रमेशचन्द्र गर्ग ने एक फर्म कायम कर प्रतिद्वंद्वी तेल व्यवसायी के रूप में काम करना शुरू किया ।
पहले महज एक छोटी सी फर्म के रूप में काम प्रारंभ करने वाले ओमप्रकाश गर्ग आसैर रमेश चन्द्र गग्र की इस टीम ने समानान्तर तेल व्यवसाय व उत्पादन को जन्म देकर हालांकि एक नया आगाज किया लेकिन यह फर्म शुरूआत में कुछ खास थी ही नहीं अव्वल तो फर्म के पास पूंजी की कमी थी और दूसरे नामवरी की कमी । लेकिन मुरैना के तेल व्यवसाय ने इसी फर्म के जन्म के साथ एक नया टर्न लिया हालांकि राठी परिवार को शुरू में इस खतरे का आभास तक नहीं हुआ लेकिन बाद में उसे इस नजर अंदाजी का न केवल तगड़ा खामियाजा भुगतना पड़ा बल्कि राठी तेल उद्योग भी पूरी तरह खत्म और चौपट हो गया ।
क्रमश: जारी
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