ग्वालियर-चंबल संभाग में सरसों की होती है 70 प्रतिशत पैदावार : कृषि उपज मण्डियों में सरसों की खरीदी-बिक्री तेज
ग्वालियर 20 मार्च 09। ग्वालियर तथा चंबल संभाग की मण्डियों में सरसों की आवक तेज हो गई है। उल्लेखनीय है कि पूरे प्रदेश की 70 प्रतिशत सरसों ग्वालियर-चंबल संभाग में पैदा की जाती है। मध्य प्रदेश में 8 लाख हेक्टेयर में सरसों बोई जाती है। वर्तमान में ग्वालियर की मुरार मण्डी में प्रतिदिन औसतन दस हजार बोरी तथा लक्ष्मीगंज मण्डी में ढ़ाई हजार बोरी सरसों आ रही है। संभाग में सर्वाधिक आवक श्योपुर मण्डी में औसतन 20 हजार बोरी प्रतिदिन है। दूसरे स्थान पर मुरैना में 15 हजार बोरी प्रतिदिन की आवक है। गोहद में भी आठ हजार बोरी सरसों प्रति दिन आर रही है। इन मण्डियों में अधिकतर आयल मिल वाले अथवा स्टाकिट सरसों की खरीद कर रहे हैं। कई खरीददार सरसों को खरीदते समय उसकी नमी की मात्रा का आंकलन के लिये मॉश्चराइजर मीटर का प्रयोग कर रहे हैं। वहीं वर्षों से इस कार्य से सम्बध्द खरीददार सरसों के दानों को मुंह में दबाकर उसकी आवाज और स्वाद से नमी का अपने तजुर्बे के आधार पर आंकलन कर दाम लगा देते हैं आमतौर पर दो हजार से कुछ ऊपर ही नीलामी छूट रही है।
शिवाजी उद्योग के लिये लक्ष्मीगंज मण्डी में सरसों खरीदने वाले मुनीम श्री मुरारी लाल ने बताया कि इस बार सरसों की अच्छी पैदावार हुई है। आवक गतवर्ष की तुलना में दुगुनी है और सरसों में तेल भी अच्छा है। गतवर्ष जहां एक क्विंटल से 36 किलो तेल ब-मुश्किल निकलता था वहीं इस बार 38 किलो से अधिक तेल मिल रहा है। अगर खली में बचने वाली तेल की मात्रा को भी शामिल करलें तो इसबार 41 प्रतिशत से अधिक तेल मिल रहा है। विगत दस सालों से सरसों की खरीदी में लगे हरीशंकर गुप्ता का भी कुछ ऐसा ही मानना था। उसने भी सरसों के कुछ दाने उठाकर चबाते हुए कहा कि खडंक सूखा माल है। अर्थात इसमें अधिकतम 6 प्रतिशत नमी होगी। श्री गुप्ता भी लक्ष्मीगंजी मण्डी में अपनी मिल के लिये खरीददारी करने आये थे।
सरसों विक्रय करने आये ग्राम सुरैला के कृषक श्री जन्डेल सिंह ने बताया कि वह चौफरा सरसों बीज बोते हैं देशी खाद के साथ साथ डी ए पी. का प्रयोग करते हैं व जरूरत के अनुसार पानी देते हैं तब कहीं एक बीघे में 12 से 15 मन सरसों ले पाते हैं। उन्होंने यह भी बताया कि बकरी की खाद गोबर की खाद से 3 गुना अधिक उपयोगी शिध्द होती है। ग्राम जखौदा थाना भंवरपुरा के कृषक श्री सुशील कुमार शर्मा ने बताया कि वह एक वर्ष सरसों लेते हैं तो अगले वर्ष गेहूं बोते हैं। बीज वो अपनी पैदावार से बचाकर उपयोग करते हैं। इस वर्ष सरसों की अच्छी पैदावार से वे प्रसन्न हैं उनके गांव में ज्वार बाजरा और चना भी बोया जाता है। कीटनाशकों का वे कम ही प्रयोग करते हैं। कीट व्याधि होने पर ही वह कृषि विशेषज्ञों के पास जाते हैं अन्यथा परम्परागत कृषि ज्ञान ही उनके अधिक काम आता है।
स्थानीय कृषि महाविद्यालय के शस्य विज्ञान विशेषज्ञ प्रो. आर. एल.राजपूत ने बताया कि इस क्षेत्र में सरसों की फसल एक मुख्य फसल है। कुछ किसान साल भर में सिर्फ अपने खेत में सिर्फ सरसों की फसल लेते हैं जबकि फसल चक्र अपनाकर और साल भर में दो फसल लेकर किसान दुगुना लाभ कमा सकते हैं। किसान उन्नत नस्ल के बीज ऊषा बोल्ड, ऊषा जयकिसान, रोहड़ी, आर एच 30 बीज का उपयोग कर किसान अधिक लाभ कका सकते है। प्रो. राजपूत ने बताया कि इस क्षेत्र के किसानों को मृदा परीक्षण कराकर संतुलित खाद और जैविक खाद का इस्तेमाल करके उत्पादन दुगुना कर सकते हैं। मृदा परीक्षण के 80 प्रतिशत मामलों में यह देखने में आया कि इस क्षेत्र की जमीन में गन्धक और जस्ते की कमी है। इस कमी को जैविक खाद और पोटास खाद का इस्तेमाल किया जा सकता है। उन्होने किसानों को सलाह दी कि वे सरसों की खेती करने के लिये किसानों को प्रति हैक्टेयर 80 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलो पोटास, 30 किलोग्राम गंधक इस्तेमाल करना चाहिए। इसके अलावा हर तीन साल बाद जिन्क सल्फेट का भी इस्तेमाल करना चाहिए।
प्रो. राजपूत ने बताया कि सरसों की बोनी के लिये 5 किलोग्राम बीज प्रति हैक्टेयर की आवश्यकता होती है। इस बीज को फफूंदनाशक दवा एजेक्टोवेक्टर और पी एस बी. कल्चर 10 ग्राम प्रतिकिलो बीज के हिसाब उपचारित करने के बाद बीज बोना चाहिए। सरसों बोते समय जमीन में गंधक की कमी को पूरा करने के लिये सिंगर सुपर फास्फेट इस्तेमाल करना चाहिए। यदि सभव हो तो प्रति हेक्टेयर 10 क्विंटल गोबर की सड़ी खाद भी इस्तेमाल करना चाहिए। इससे 25 प्रतिशत कम रासायनिक खाद की जरूरत पड़ेगी और कम लागत में ज्यादा उत्पादन होगा। उन्होंने बताया कि किसानों को सरसों बोने के 40 दिन बाद पहली सिंचाई और बीज आते समय दूसरी सिंचाई कर देना चाहिए।
प्रो. राजपूत ने बताया कि सरसों की फसल में खरपतवारनाशी के रूप में फ्लू-क्लोरेलिन का इस्तेमाल करना चाहिए। यह दवा एक किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर के मान से 600 लीटर पानी में घोलकर सरसों बोने से पूर्व खेत में छिड़काव करना चाहिए। सरसों माहूं नामक कीट से बचाव के लिये किसानों को मेटा सिस्टॉक अथवा डाय मिथोयेट नामक कीटनाशक का इस्तेमाल करना चाहिए। यह दवा प्रति हेक्टेयर 10 मिली. 10 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़काव करना चाहिए। यह छिडकाव हर 15 दिन बाद करना चाहिए, इससे फसल उत्पादन बढ़ता है।
प्रो. राजपूत ने बताया कि ग्वालियर-चंबंल सभाग में सरसों की खेती लगभग 5.5 लाख हेक्टेयर भूमि पर की जाती हैं। यहां पर मुख्य रूप से लाहा, तोरिया और हावला 400 सरसों की खेती होती हैं। इसमें हावला 400 शंकर नस्ल की सरसों हैं। इसकी विशेषता यह है कि इसके तेल में कड़ुवापन नहीं होता। इसके तेल की विदेशों में ज्यादा मांग हैं। इसकी खोज ''महिको'' नामक एक निजी कंपनी ने की है। उन्होने बताया कि सरसों में ब्लूकोसिलीनेट और इरोसिकएसिड के कारण झारपन पाया जाता है। इस झारपन युक्त तेल की मांग अरब देशों में ज्यादा हैं। उन्होंने कहा कि अधिक उत्पादन के लिये इस क्षेत्रं के प्रगतिशील किसान सरसों की ''तारामीरा'' प्रजाति का इस्तेमाल कर सकते हैं। इसके अलावा किसान उत्पादन बढ़ाने के लिये सनई और ढ़ैंचा और केंचुआ खाद का इस्तेमाल करके किसान फसल उत्पादन बढ़ा सकते हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें