भारतीय गंगा-जमुनी संस्कृति का परिचायक है - तानसेन समारोह
भारतीय गंगा जमुनी संस्कृति का परिचायक तानसेन समारोह कलाकारों के लिए श्रध्दा का स्थान है । संगीतज्ञ इस समारोह में भाग लेकर तथा तानसेन की मजार पर श्रध्दासुमन और स्वरांजलि अर्पित कर अपने आप को गौरवान्वित महसूस करते हैं ।
संगीत सम्राट तानसेन की स्मृति में ग्वालियर में मनाये जाने वाले राष्ट्रीय तानसेन संगीत समारोह ने अपनी 83 वर्ष की आयु पूर्ण कर ली है । भारतीय संगीत के साक्ष्य बने इस समारोह की शुरूआत ग्वालियर के तत्कालीन महाराज माधव राव सिंधिया ने फरवरी 1924 में उर्स तानसेन के रूप में की थी। समारोह के प्रारंभिक वर्षों में इसमें मशहूर नृत्यांगनाएं भी भाग लेती थीं और नृत्य तथा गायन का क्रम अलग अलग छोल दरियों में रात भर चला करता था । संगीत सम्राट तानसेन की याद को ताजा रखने तथा संगीत विधा की तरक्की और प्रोत्साहन हेतु तत्कालीन महाराज माधवराव सिंधिया की पहल पर पहले उर्स तानसेन 7, 8 और 9 फरवरी 1924 को मनाया गया था । इसके लिए एक इन्तजामिया कमेटी थी, जो आज भी अस्तित्व में है । उस समय इस कमेटी को इस उर्स के लिए 600 रूपये दिए जाते थे । तब से ही इस त्रिदिवसीय समारोह का शुभारंभ हरिकथा तथा चादर चढ़ाने के साथ होता आया है ।
स्वाधीनता के पश्चात इस समारोह के आयोजन की जिम्मेदारी राज्य शासन तथा आकाशवाणी ने संयुक्त रूप से ली । बाद में यह समारोह जनसम्पर्क विभाग के माध्यम से आयोजित होता रहा और अब यह समारोह संस्कृति परिषद के अंतर्गत उस्ताद अलाउद्दीन खां संगीत कला अकादमी (मध्यप्रदेश कला परिषद) के द्वारा आयोजित किया जाता है। इस समारोह को नया रूप प्रदान करने में तत्कालीन केन्द्रीय सूचना मंत्री डा. बालकृष्ण केसकर और आकाशवाणी में हिन्दुस्तानी संगीत के सलाहकार ठाकुर जयदेव सिंह ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई । राज्य शासन द्वारा इस समारोह को नई दिशा और गति देने के प्रयास निरंतर जारी हैं । सुर संगीत का यह अनोखा उत्सव तानसेन समाधि हजीरा पर आयोजित हो रहा है ।समारोह की अंतिम प्रात: कालीन संगीत सभा ग्वालियर से लगभग 45 किलोमीटर दूर तानसेन की जन्मस्थली बेहट में आयोजित होती है, जहां श्रेष्ठ कलाकार स्थानीय संगीत विद्यालयों के विद्यार्थियो के साथ जाकर संगीत सम्राट तानसेन को अपने श्रध्दा सुमन और स्वरांजलि अर्पित करते है ।
फरवरी 1924 से अब तक देश के लगभग सभी ख्यातिनाम संगीतज्ञों और कलाकारों ने इस आयोजन में कभी न कभी अपनी प्रस्तुति दी है और सभी ने इस स्थान की महत्ता को स्वीकारा है । भारत रत्न पंडित रविशंकर ने वर्ष 1989 के तानसेन समारोह में शामिल होने के बाद कहा था कि यहां एक जादू सा होता है, जिसमें प्रस्तुति देते समय एक सुखद रोमांच की अनुभूति होती है । उर्स के रूप में प्रारंभ हुआ यह समारोह वट वृक्ष की तरह संगीत प्रेमियों के हृदय में बस गया है।
ग्वालियर घराने के मूर्धन्य गायक पद्म भूषण स्व पंडित कृष्णराव शंकर पंडित के शब्दों में तानसेन समारोह के प्रारंभिक वर्षों में दूर दूर से कलाकार खुद ब खुद संगीत सम्राट तानसेन को श्रध्दांजलि देने आते थे और बिना कोई पारिश्रमिक लिए अपनी स्वरांजलि अर्पित करते थे । कभी कभी तो कलाकार अपना सम्मान लेकर पैदल तानसेन समाधि तक पहुंचते थे ।
मशहूर शहनाई नवाज उस्ताद बिस्मिल्लिहाखां भी एक बार निजी यात्रा पर ग्वालियर आये और दिन भर की व्यस्तता के बाद उन्होनें रात दो बजे तानसेन की मजार पर पहुंचकर शहनाई वादन कर तानसेन को श्रध्दासुमन अर्पित किये । एक बार मशहूर पखावज वादक पागलदास भी तानसेन के उर्स के मौके पर श्रध्दांजलि देने यहां आये, लेकिन रेडियो के ग्रेडेड आर्टिस्ट नहीं होने के कारण उर्स में भाग नहीं ले सके । उन्होनें तानसेन की मजार पर ही बैठकर पखावज का ऐसा अद्भुत वादन किया, कि संगीत प्रेमी जन समारोह से उठकर उनके समक्ष जाकर बैठ गये ।
संगीत सम्राट तानसेन की नगरी ग्वालियर के लिए कहावत प्रसिध्द है कि यहां बच्चे रोते हैं, तो सुर में और पत्थर लुड़कते है तो ताल में । इस नगरी ने पुरातन काल से आज तक एक से बढकर एक संगीत प्रतिभायें संगीत संसार को दी हैं और संगीत सूर्य तानसेन इनमें सर्वोपारि हैं। ग्वालियर से लगभग 45 कि.मी. दूर ग्राम बेहट में श्री मकरंद पांडे के यहां तानसेन का जन्म ग्वालियर के तत्कालीन प्रसिध्द फकीर हजरत मुहम्मद गौस के वरदान स्वरूप हुआ था । कहते है कि श्री मकरंद पांडे के कई संताने हुई, लेकिन एक पर एक अकाल ही काल कवलित होती चली गई । इससे निराश और व्यथित श्री मकरंद पांडे सूफी संत मुहम्मद गौस की शरण में गये और उनकी दुआ से सन् 1486 में तन्ना उर्फ तनसुख उर्फ त्रिलोचन का जन्म हुआ, जो आगे चलकर तानसेन के नाम से विख्यात हुआ ।
तानसेन के आरंभिक काल में ग्वालियर पर कलाप्रिय राजा मानसिंह तोमर का शासन था । उनके प्रोत्साहन से ग्वालियर संगीत कला का विख्यात केन्द्र था, जहां पर बैजू बावरा, कर्ण और महमूद जैसे महान संगीताचार्य और गायक गण एकत्र थे, और इन्हीं के सहयोग से राजा मानसिंह तोमर ने संगीत की ध्रुपद गायकी का आविष्कार और प्रचार किया था । तानसेन की संगीत शिक्षा भी इसी वातावरण में हुई । राजा मानसिंह तोमर की मृत्यु होने और विक्रमाजीत से ग्वालियर का राज्याधिकार छिन जाने के कारण यहां के संगीतज्ञों की मंडली बिखरने लगी । तब तानसेन भी वृंदावन चले गये और वहां उन्होनें स्वामी हरिदास जी से संगीत की उच्च शिक्षा प्राप्त की । संगीत शिक्षा में पारंगत होने के उपरांत तानसेन शेरशाह सूरी के पुत्र दौलत खां के आश्रय में रहे और फिर बांधवगढ़ (रीवा) के राजा रामचन्द्र के दरबारी गायक नियुक्त हुए । मुगल सम्राट अकबर ने उनके गायन की प्रशंसा सुनकर उन्हें अपने दरबार में बुला लिया और अपने नवरत्नों में स्थान दिया ।
अकबर की कश्मीर यात्रा के समय सन् 1589 में लाहौर में इस महान संगीत मनीषी ने अपनी इह लीला समाप्त की और उनकी इच्छानुसार उनका शव ग्वालियर लाया गया और यहां प्रसिध्द सूफी संत मोहम्मद गौस की मजार के पास ही इस संगीत सम्राट को समाधिस्थ कर दिया गया ।
इस महान संगीतकार की समाधि पर सन् 1924 से प्रति वर्ष संगीतज्ञों का मेला लगता है, जहां देश के चोटी के कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन कर संगीत सम्राट तानसेन को अपनी श्रध्दांजलि अर्पित करते हैं। संगीत सम्राट तानसेन की स्मृति को चिरस्थाई बनाने के लिए मध्यप्रदेश शासन के संस्कृति विभाग द्वारा हिन्दुस्तानी संगीत के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान करने वाले कलाकारों को सम्मानित करने के लिए सन् 1980 में राष्ट्रीय तानसेन सम्मान की स्थापना की गई ।