विशेष आलेख- तानसेन संगीत समारोह 2009 : :: धरामेरू सब डोलते सुनि तानसेन की तान ::
आर.एम.पी. सिंह
लेखक म.प्र. जनसम्पर्क संचालनालय के वरिष्ठ अधिकारी हैं
ग्वालियर 3 दिसम्बर 09। भारतीय शास्त्रीय संगीत जगत में तानसेन एक ऐसे नक्षत्र रहे हैं जिनके आलोक से संपूर्ण संगीत जगत प्रकाशित होता रहा है। मुगल सम्राट अकबर के नवरत्नों में तानसेन का स्थान परम सम्माननीय था। वे स्वामी हरिदास के शिष्य थे और ध्रुपद गायकी के उन्नायक भी। तानसेन कवि थे, संगीतज्ञ थे , भक्त थे और चमत्कारिक गायक थे। दीपक राग से दीप प्रज्वलित होना और मल्हार से वर्षा होने जैसी किवदंतियां उत्तर भारत के लोक जीवन में व्याप्त है।
तानसेन का जन्म ग्वालियर जिले के बेहट गांव मे 1506 में बताया जाता है। उनके पिता का नाम मुकंद मिश्र था। वे भी कवि थे। राजा मान सिंह की सभा में उनका आना-जाना था। झिलमिल नदी के तट पर स्थित शिवमंदिर के समीप तानसेन संगीत की साधना करते थे। कहते है कि उनकी तान से शिव मंदिर टेढ़ा हो गया है। आज भी वह मंदिर टेढ़ा है। उसे सीधा करने का असफल प्रयास किया गया। उनके समकालीन सूरदास जी ने तानसेन के बारे में कहा था :-
''विधना यह जिय जानिके, शेष ही दियो न कान
धरामेरू सब डोलते, सुनि तानसेन की तान''
तानसेन ने प्रारंभिक संगीत शिक्षा स्वामी हरिदास जी के सामीप्य में प्राप्त की। वैजूबावरा उनके गुरू भाई थे। शिक्षा प्राप्ति के बाद तानसेन ग्वालियर में राजा मान सिंह के दरबार में भी रहे परन्तु बाद में वे बांधव नरेश रामचन्द्र के दरबार में गये। राजा रामचंद्र ने उन्हें तानसेन की उपाधी दी तथा एक करोड़ अशर्फी उन्हें भेंट की। वहां से तानसेन की लोकप्रियता चारों तरफ फैलने लगी। जब उनकी ख्याति सम्राट अकबर को मिली तो वह उनसे मिलने को आतुर हो उठा और राजा बीरबल के माध्यम से
तानसेन को आगरा बुलवाया। अकबर के भारी दबाब के कारण राजा रामचन्द्र पेशो-पेश में पड़ गये और भारी मन से उन्हें विदा किया। राजा रामचन्द्र के दरबार में पहली बार तानसेन ने यह पद गाया था:-
''गये मेरे सब दु:ख, देख तै आप दरस
अष्ट-सिध्द नवनिधि देत हौं, पलक में धनजन कंचन जात बरस''
तानसेन ने वांधव नरेश के शौर्य, उनकी दानशीलता और संगीत प्रेम की खुले कंठ से सराहना की। दोनों मित्र हो गये थे। इतिहासकार बदायूंनी ने राजा रामचन्द्र और तानसेन की विदाई का मार्मिक चित्रण करते हुए लिखा है कि राजा बच्चे के समान रो पड़े थे। बाद में पालकी पर बिठाकर उन्हें विदा किया। रास्ते में जब तानसेन को प्यास लगी और पानी पीने के लिए पालकी से उतरे तो देखा कि राजा रामचन्द्र भी पालकी को कंधा दिए है। तानसेन ने राजा को वचन दिया कि जिस दाहिने हाथ से उनकी जुहार की है, उस हाथ से किसी को जुहार नहीं करेंगे। राजा अपनी राजधानी भारी मन से लौट गये। तानसेन आगरा की ओर प्रस्थित हुए।
: सम्राट अकबर के दरबार में:
सम्राट अकबर स्वंय संगीत प्रेमी तथा साहित्यानुरागी थे। उसके दरबार में ईरानी, तूरानी, कश्मीरी स्त्री और पुरूष गायक थे। अबुल फ़जल ने लिखा है कि '1562 में तानसेन सम्राट के समक्ष उपस्थित हुए। तानसेन विनम्र एवं सरल स्वभाव के थे। सम्राट ने उन्हें संगीत विभाग का प्रमुख बना दिया था। तानसेन उस समय ग्वालियर के कलावंतों में सर्वश्रेष्ठ थे।
'तानसेन ने अकबर के दरबार में पहली बार अपनी प्रथम प्रस्तुती दी थी-यह पद गाया-
''तख्त बैठो महाबली, ईश्वर होय अवतार
देश देस के सेवा करत है,वकरूत कंचल थार
जोई आवत, सोई काम पावत, मनइच्छा पूरन आधार
तानसेन कहे साह जलालदीन अकबर
गुनी जनन के राज करन को कियो करतार''
कहते है अकबर ने यह पद सुनकर तानसेन को दो कराड़ तांबे के सिक्के दिये थे। अकबर के दरबार में ग्वालियर एवं अन्य स्थानों के करीब 36 गायक थे। तानसेन ने अकबर के दरबार में 27 वर्षो तक अपनी संगीत सेवायें दी। वे नवरत्न में से प्रमुख रत्न बने रहे। तानसेन जहॉ अकबर के शौर्य के प्रशंसक थे वहीं अपने गायन के माध्यम से सलाह भी दिया करते थे। उसके उतावले पन पर नियत्रणं के लिए उन्होंने लिखा-
''धीरे-धीरे-धीरे मन, धीरें सबकुछ होय
धीरे राज, धीरे काज, धीरे योग, धीरे ध्यान
धीरे-सुख समाज जोय''
तानसेन अन्त:पुर में भी गायन प्रस्तुत करते थे परन्तु उस समय सम्राट स्वयं उपस्थित रहता था। अन्त:पुर के गायन श्रृंगार रस से ओतप्रोत होते थे। ध्रुपद गायकी में श्रृंगार रस का महत्वपूर्ण स्थान है।
तानसेन का कवित्व भक्ति से विभूषित था। तानसेन ने अपनी रचनाओं के माध्यम से शिव, काली, गणेश, सरस्वती, राम और कृष्ण की वंदना की है। राम-रहीम की एकता को दर्शाते हुए उन्होंने लिखा-
''तुम रव, तुम साहब, तुम ही करतार
घर-घर पूरन जलथल भर भार
तुम ही रहीम,तुम ही करीम,
गवत गुनी गंधर्व, सुर वर,सुर तार
तुम ही पूरन व्रधा, तुम ही अचल
तुम ही जगदगुरू, तुम ही सरदार
कहे मियां तानसेन तुम भी आज
तुम ही करत सकल जग के भवपार''
तानसेन ने कई रागों की रचना की हैं उनमें प्रमुख रूप से- मियां कीे तोड़ी, मियां की मल्हार, मियां की सांरग आदि है। तानसेन द्वारा रचित राग रागनियां संगीत शास्त्र की अमूल्य धरोहर है।
कहा जाता है कि तानसेन के चार पुत्र और एक पुत्री थे। उनके नाम थे- तानरस खॉ, विलास खॉ, हमीर सेन, सुरार सेन और पुत्री का नाम सरस्वती था। संगीत के क्षेत्र में उनकी सभी संताने दक्ष थी तथा उनकी भी रचनायें उपलब्ध हैं।
किवंदती है कि तानसेन ने सूफी संत मोहम्मद गौस के सामीप्य में आने के बाद इस्लाम धर्म कबूल कर लिया था। मोहम्मद गौस उस समय के प्रसिध्द सूफी संत थे और सम्राट अकबर उनके भी करीब थे।
संगीत सम्राट तानसेन की मृत्यु 26 अप्रेल 1589 को आगरे में हुई परन्तु उन्हें ग्वालियर के मोहम्मद गौस की समाधि के समीप दफनाया गया। तानसेन की समाधि पर प्रतिवर्ष महान गायक की स्मृत्ति में संगीत सम्मेलन होता है। जहां देश के प्रख्यात संगीतज्ञ तानसेन को स्वरांजलि अर्पित करते हैं।
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