के.एस. आयल्स बनाम रमेश चन्द्र गर्ग : खाकशाह से भामाशाह और शहंशाह तक का सफर – 1
नरेन्द्र सिंह तोमर ''आनन्द''
के.एस. आयल्स लिमिटेड और रमेश चन्द्र गर्ग हाल ही में आयकर छापों के बाद चर्चा में आये चम्बल की दो महान शख्सियत हैं । संयोग वश मुझे एक खाकशाह को भामाशाह तक और शहंशाह बनने तक का सफर तय करते नजदीक से देखना नसीब हुआ है । न तो तरक्की बुरी है, न पैसे वाला बनना बुरा है , न बिजनेस एम्परर बनना ही गलत है , लेकिन सवाल यह है कि बड़े मुकाम तक पहुँचने के लिये आप रास्ता क्या अख्त्यार करते है, किस मार्ग से ऊँचाईयों को छूते हैं । आज जब चम्बल के इस बिजनेस एम्परर पर सिंहदृष्टि फेंक कर इसका अंजाम देखता हूं तो कई बिसरी बातें अचानक दिमाग को ढिंझोड़ जाती हैं ।
See Video Of Income Tax Raid
http://blip.tv/file/get/Gwalior-KSOILSRAIDEDBYINCOMETAX894.flv
कुछ दशक पहले तक चम्बल में सरसों नहीं होती थी और लोग यहॉं अलसी का तेल खाने पकाने में उपयोग करते थे । तोमरघार के लोगों को अस्सी यानि अलसी के तेल की पूडि़यां खाने वालों के नाम से राजपूताने में एक खास कहावत से जाना जाता था । फिर यहॉं चम्बल से अम्बाह शाखा नहर निकाली गयी , इस नहर को बनाने वाले इसके ठेकेदार एक बहुत बड़े व्यावसायी और एक राजनीतिक दल के फायनेन्सर रहे ठाकुर भोला सिंह से भोपाल में जब एक बार मेरी मुलाकात हुयी तो जैसे ही उन्होंने जाना कि मैं मुरैना से आया हूं तो उन्होंने लपक कर मुझे सीने से लगा लिया और जहॉं चम्बल के पुराने धुरन्धर राजनीतिज्ञों के हाल चाल पूछ डाले वहीं इस अम्बाह शाखा नहर के बनवाने के किस्से भी सुना डाले , संयोग से यह नहर मेरे गॉंव से भी गुजरती है ।
इस नहर के आने के बाद चम्बल की तकदीर बदल गई और चम्ब को अलसी के तेल से छुटकारा मिल गया , यहॉं सरसों पैदा होने लगी , सरसों भी ऐसी और इतनी कि सारे देश में यह क्षेत्र सरसों का सबसे बड़ा और श्रेष्ठ उत्पादक बन कर मशहूर हो गया ।
धीरे धीरे क्षेत्र में तरक्की हुयी, एकाध बस आपरेटर बने, एकाध ने ट्रेक्टर लेकर तो किसी ने आटा चक्की, ट्यूबवेल और सरसों की पिराई के स्पेलर्स यानि कच्ची घानी लगवाई । इससे पहले तेल की पिराई तेलियों द्वारा कोल्हू से की जाती थी और कोल्हू भी हरेक को नसीब नहीं होता था ।
गॉंवों में दो तीन गॉंवों के बीच एकाध आटा चक्की और दो तीन पंचायतों के बीच एकाध तेल पिराई की कच्ची घानी यानि स्पेलर होता था, और एक तिहाई तेल तथा पीना पिराई में निकलते थे । लेकिन तेल भी शुद्ध और पीना भी शुद्ध होती थी । कोई दोबारा पीना को डालकर फिर तेल निकालने का रिवाज ही नहीं था । तेल की झरप इतनी तेज कि तेल पिराई के वक्त स्पेलर के पास भी बैठ जाओ या निकले तेल के ऊपर सीधे मुँह कर दो ऑखो से ऑसूओ की धार ऐसी बहे कि रूकने का नाम ही न ले ।
मैं उन भाग्यशाली लोगों में से हूं जिन्होंने यह तेल पिराया भी है और खाया भी है । राजपूताने में इसी तेल को सिर में लगाने, मालिश इत्यादि में प्रयोग किया जाता रहा ।
फिर इसी दरम्यान चम्बल में डक्ैतो और बागीयों ने चम्बल के ग्रामीण जीवन को बुरी तरह प्रभावित किया, गॉवों से कई जातियॉं निकल कर शहर की ओर भागीं और मुरैना के कलेक्टर तथा एस.पी. के निकट ही यानि शहर मुरैना में आकर बसीं तथा खुद को सुरक्षित करने की कोशिश की । इसमें गॉवों को छोड़कर थानों के नजदीक या शहर में जाकर बसने वालों में सबसे बड़ी संख्या बनियों की यानि वैश्य समुदाय के लोगों की थी । उस समय डकैत या बागी बनियों की पकड़ करते थे और ओछी जाति के लोगों को सीधे या तो गोली मार देते थे या अपनी सेवा कराते थे । गॉवों में भी उन्हें सेवा ही करनी होती थी और वह भी बगैर पैसे के और इसके बदले उन्हें स्यावड़ी यानि हिस्सा राशि यानि खेतों में पैदा होने वाले अनाज का कुछ भागांश जो कि तय शुदा होता था गॉंव के हर घर से दिया जाता था ।
बनियों के गॉंव छोड़ देने से गॉवों की अर्थव्यवस्था और ग्रामीण सुराज व्यवस्था एकदम चौपट हो गयी और गॉंवों की तकदीर बदहाल होने लगी । विशेषकर बसैया कुतवार, पहाड़गढ़, सबलगढ़, विजयपुर जैसे क्षेत्र बनियों से खाली होकर शहरों में बनियों के बस जाने से गाफव सूने हो गये , तोमरघार के कई गॉव भी बनिये छोड़कर अम्बाह, पोरसा और मुरैना में बसेरा कर गये ।
एक बहुत बड़ा और समृद्ध गॉंव जहॉं न केवल विशाल हवेलियॉं है और महल तथा किलेनुमा रहवासों आलीशान नक्काशीदार मकानों को छोड़ कर कुतवार जैसे एक समय के महाराजा कुन्तीभोज के महान साम्राज्य की राजधानी को छोड़कर मुरैना भाग आये, लेकिन बनियों का उस समय लाखों का आज करोड़ों का माल मत्ता और खजाना वहीं उनके मकानों में दबा रह गया ।
क्रमश: जारी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें