रविवार, 5 अक्टूबर 2008

कुरान शरींफ: शंकाएं तथा समाधान

कुरान शरींफ: शंकाएं तथा समाधान

तनवीर जांफरी (सदस्य, हरियाणा साहित्य अकादमी, शासी परिषद)

email: anveerjafri1@gmail.com  tanveerjafri58@gmail.com  tanveerjafriamb@gmail.com

22402, नाहन हाऊस अम्बाला शहर। हरियाणा फोन : 0171-2535628  मो: 098962-19228

 

       इस्लाम धर्म में सर्वोच्च धर्मग्रन्थ ंकुरान शरींफ को ही माना जाता है। इसे सबसे पवित्र धार्मिक ग्रन्थ भी इसलिए कहा जाता है क्योंकि मुसलमानों में यह मान्यता है कि ंकुरान शरींफ में दर्ज एक-एक आयत तथा एक-एक शब्द केवल ंखुदा (अल्लाह) द्वारा अपने रसूल (हंजरत मोहम्मद) को दिए गए वह संदेश हैं जोकि अल्लाह ने अपने रसूल के माध्यम से आम लोगों तक पहुंचाने के लिए रसूल को भेजे थे। लगभग 1500 वर्ष पूर्व जब ंकुरान की आयतें एक के बाद एक 'वही' (आकाशवाणी) के माध्यम से हंजरत रसूल पर नांजिल (आवतरित) होतीं, उसी समय हंजरत मोहम्मद के सहयोगी मोहम्मद के मुंह से ंखुदा के उन निर्देशों व आदेशों को सुनकर उन्हें कलमबन्द कर लेते। चूंकि यह घटना उस समय अरब देश में घट रही थी, अत: वार्तालाप अथवा लेखनी का माध्यम भी अरबी भाषा ही बनी। और यही वजह है कि ंकुरान शरींफ मूल रूप से अरबी भाषा में ही संकलित किया गया।

              जिस प्रकार इस्लाम के उदय के समय ही इस्लाम पर सबसे बड़ा आतंकवादी हमला स्वयं एक मुस्लिम बादशाह द्वारा हंजरत मोहम्मद के ही परिवारजनों पर किया गया था, ठीक उसी प्रकार ंकुरान शरींफ को लेकर भी अनेक भ्रांतियां ंकुरान शरींफ के संकलित होने से पहले ही अरब देश में पैदा होने लगी थीं। उस समय जहां हंजरत मोहम्मद को ंखुदा का रसूल मानने वाले तमाम लोग हंजरत मोहम्मद के मुंह से निकलने वाली आयतों को कलाम-ए-ंखुदा समझते, वहीं हंजरत मोहम्मद से विरोध रखने वाले अनेकों लोग ऐसे भी थे जो यह मानने को तैयार नहीं होते थे कि यह ंखुदा की भेजी हुई आयतें हैं बल्कि वे इसे मोहम्मद द्वारा रचा गया ंकुरान ही मानते थे। दुर्भाग्यवश ंकुरान शरींफ की आलोचना तथा विरोध का यह सिलसिला उसी प्रकार से आज भी जारी है। बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि दुनिया में बढ़ती हुई आतंकवादी घटनाएं तथा अधिकांशतय: इन घटनाओं में मुसलमानों का शामिल होना इस्लाम व कुरान के आलोचकों को इस बात के लिए सुनहरा अवसर प्रदान कर रहा है कि वे इस्लाम विशेषकर इस्लामी पवित्र ग्रन्थ ंकुरान शरींफ को अपनी आलोचना के निशाने पर ले सकें। आज यह आरोप सीधे तौर पर लगाया जा रहा है कि ंकुरान शरींफ नंफरत, लड़ाई-झगड़ा, वैमनस्य व मरने-मारने का मार्ग दिखाता है। आईए मोटे तौर पर हम भी झांकने का प्रयास करें कि आंखिर ंकुरान शरींफ कहता क्या है?

              सर्वप्रथम तो इस भ्रान्ति को ही मुस्लिम धर्मगुरुओं को दूर करना चाहिए कि ंकुरान शरींफ केवल मुसलमानों का ही धर्मग्रन्थ नहीं बल्कि पूरी मानवता को संदेश देने वाला तथा पूरी मानवता के लिए आचार संहिता निर्धारित करने वाला एक धर्म ग्रन्थ है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अल्लाह या ईश्वर सभी का रचयिता है तथा सबका पालने वाला है। जिस प्रकार उसकी सभी बरकतें, सभी नेमतें तथा उसके द्वारा दी जाने वाली सभी सुख सुविधाएं जैसे हवा, पानी, धूप, छाया आदि पूरी मानवता के लिए होती हैं, ठीक उसी प्रकार उस अल्लाह के द्वारा दिए जाने वाले सभी निर्देश व हिदायतें भी सम्पूर्ण मानवता के लिए हैं न कि किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेष के लिए। या तो मुस्लिम धर्मगुरुओं को यह प्रमाणित करना पड़ेगा कि अल्लाह भी 'मुसलमान' है, फिर तो ंकुरान शरींफ को मात्र मुसलमानों का धर्मग्रन्थ माना भी जा सकता है। और यदि ऐसा नहीं है तो ंकुरान शरींफ पर मुसलमानों का एकाधिकार अथवा 'कॉपीराइट' होना कम से कम मेरी समझ में तो हरगिंज नहीं आता।

              ंकुरान शरींफ में इन्सानों को अथवा समाज को तीन भागों में विभाजित किया गया है। इनमें एक तो वे हैं जो ला इलाहा इल्लल्लाह के दायरे में आते हैं तथा मुसलमानों में शरीक हैं अर्थात् एक ईश्वर पर विश्वास रखते हैं। इन्हें ंकुरान शरींफ में मोमिन कहकर संबोधित किया गया है। दूसरे वे लोग हैं जो ला इलाहा इल्लल्लाह के दायरे में तो हमारे शरीक ंजरूर हैं परन्तु यह स्वयं भी अहले-किताब (पुस्तकधारी) हैं। इनमें हम यहूदियों व ईसाईयों आदि को गिन सकते हैं। और तीसरा वर्ग वह है जोकि न तो ला इलाहा इल्लल्लाह कहता   है, न ही हमारे किसी भी अंकीदे में हमारा शरीक है। उन्हें ंकुरान शरींफ में कांफिर कहकर सम्बोधित किया गया है। अब यहां प्रश् यह है कि इस प्रकार के वर्गीकरण के बाद ंकुरान शरींफ इन तीनों वर्गों के लिए अलग-अलग और आगे क्या दिशा निर्देश देता है।

              प्रथम वर्ग अर्थात् मोमिनों के लिए ंकुरान शरींफ कहता है कि 'इन्नमल मोमिनीने इंकवा' अर्थात् सभी मोमिनीन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एक दूसरे के भाई हैं। परन्तु बड़े दु:ख का विषय है कि ंकुरान शरींफ के इन्हीं दिशा निर्देशों की धाियां आज इन्हीं तथाकथित मोमिनों व मुसलमानों द्वारा ही उड़ाई जा रही हैं। इरांक, अंफंगानिस्तान व पाकिस्तान इसके आज के सबसे बड़े उदाहरण हैं। दूसरे वर्ग अर्थात् एक ईश्वर को मानने वाले पुस्तकधारी वर्ग के लिए ंकुरान शरींफ के 'सूरए आले इमरान' में दर्ज है कि 'ऐ अहले किताब जब हम सब एक ही अल्लाह के मानने वाले हैं तो क्यों न 'इत्तेहाद' (संगठित होकर) के साथ मिलजुल कर दुनिया से बुराई मिटाने का काम करें।' दुर्भाग्यवश आज ईसाईयों व यहूदियों के रूढ़ीवादी वर्ग द्वारा इस्लाम व ंकुरान शरींफ पर नंफरत फैलाने तथा इसपर असहयोग की भूमिका में रहने का आरोप लगाया जाता है। परन्तु ंकुरान शरींफ के माध्यम से दिया जाने वाला उपरोक्त संदेश यह समझ पाने के लिए पर्याप्त है कि इस्लाम परस्पर सहयोग का कितना बड़ा हिमायती है।

              अब रहा तीसरा वर्ग जिसे ंकुरान शरींफ कांफिर कहकर सम्बोधित करता है। इस वर्ग में वे लोग आते हैं जो न तो एक अल्लाह को मानते हैं, न ही रसूल को, न ही ंकुरान शरींफ को। अरबी शब्द कांफिर का शाब्दिक अर्थ है 'इन्कार करने वाला'। अरब में जब हंजरत मोहम्मद ंकुरान शरींफ का संदेश आम लोगों तक पहुंचा रहे थे तथा आम लोगों को यह समझाने की कोशिश कर रहे थे कि सबका मालिक एक ही अल्लाह है, उस समय बहुत से लोग ऐसे थे जो हंजरत मोहम्मद के इस कथन से सहमत नहीं थे तथा उनकी लगभग प्रत्येक बात को मानने से इन्कार करते थे। ऐसे लोगों के लिए ंकुरान शरींफ के 30वें पारे में अल्लाह ंफरमाता है 'ंकुल या अईयोहल कांफिरूना ला बुदूना ताबेदून', ऐ रसूल कह दीजिए कि ऐ कांफिरों हम उसकी इबादत नहीं करते जिसकी तुम करते हो। और न तुम उसकी इबादत करने वाले हो, जिसकी हम इबादत करते हैं। लिहांजा 'लकुम दीनकुम वालेदीन' अर्थात् तुमको तुम्हारा दीन मुबारक और हमें हमारा। कांफिरों (इन्कार करने वालों) के लिए दिए जाने वाले इस संदेश से कहीं भी यह ंजाहिर नहीं होता कि ंकुरान शरींफ इस्लाम पर न चलने वालों को ंकत्ल कर देने अथवा उनपर ंजुल्म ढाने का आदेश देता है। हां इतना ंजरूर है कि कई मुस्लिम शासकों ने ंकुरान शरींफ की ंगलत व्याख्या का सहारा अपने साम्राज्य को बढ़ाने, बचाने या उसे स्थापित करने के लिए ंजरूर लिया। और यही काम आज भी जारी है। यही वजह है कि इस्लाम पर तथा ंकुरान शरींफ पर उंगली उठने का कारण कल भी यही क्रूर मुस्लिम शासक थे और आज भी ऐसे कई मुस्लिम धार्मिक ठेकेदार, आतंकी सरगना तथा क्रूर शासक ंकुरान शरींफ की शिक्षाओं को बदनाम करने में लगे हैं।

              अत: आज मुस्लिम उलेमाओं को विश्वस्तर पर यह समझने और समझाने की ंजरूरत है कि ंकुरान के संदेश दरअसल ंकिसके लिए हैं? ंकुरान शरींफ स्वयं किसका है और किसके लिए है तथा इनमें संकलित ंखुदा के पैंगाम के वास्तविक अर्थ क्या हैं? निश्चित रूप से ंकुरान में बुरे लोगों के विरुद्ध सख्ती बरतने तथा उन्हें नियंत्रण में रखने की बातें कही गई हैं। परन्तु यह बातें केवल बुरे लोगों के लिए हैं न कि किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेष के लोगों के लिए। जिस प्रकार कोई भी देश, कोई भी शासन-प्रशासन अथवा परिवार अपने समाज हेतु कोई आचार संहिता तैयार करता है तो निश्चित रूप से उसमें बुराई करने वालों के लिए संजा अथवा सख्ती किए जाने का ही प्रावधान होता है। बुराई करने वालों को दुनिया में कहीं भी सम्मानित नहीं किया जाता। ठीक उसी प्रकार ंकुरान शरींफ में भी कुछ स्थानों पर बुराईयों तथा बुराई में शरीक लोगों से निपटने के कुछ तरींके बताए गए हैं परन्तु इसमें किसी वर्ग अथवा सम्प्रदाय विशेष को निशाना ंकतई नहीं बनाया गया।

              लिहांजा आज वक्त क़ा तंकांजा है कि स्वयं को ंकाबिल समझने वाले तथा इस्लाम को बदनाम होने से बचाने की इच्छा रखने वाले मुस्लिम बुद्धिजीवी व धर्मगुरु खुलकर सामने आएं तथा ंकुरान शरींफ से संबंधित शंकाओं को दूर करने का समाधान खोजने का प्रयास करें। यदि यथाशीघ्र ऐसी व्यवस्था मुस्लिम धर्माधिकारियों द्वारा नहीं की गई तो न सिंर्फ इस्लाम बल्कि इस्लामी धर्मग्रन्थ समझे जाने वाले ंकुरान शरींफ पर उंगलियां उठने का यह सिलसिला बदस्तूर जारी रहेगा और आए दिन भारत व दुनिया में अन्यत्र होने वाले आतंकी हमलों में मुसलमानों की शिरकत ंकुरान शरींफ को बदनाम करने में सहायक सिद्ध होती रहेगी।     तनवीर जांफरी       

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

कायर न बनें, इत्तेहाद की फ़िक्र करते हुए कृपया माकूल जवाब दें:

9:66, Make ye no excuses: ye have rejected Faith after ye had accepted it. If We pardon some of you, We will punish others amongst you, for that they are in sin


Bukhari Volume 4, Book 54, Number 445:
Narrated Abu Dhar:
The Prophet said, "Gabriel said to me, 'Whoever amongst your followers die without having worshipped others besides Allah, will enter Paradise (or will not enter the (Hell) Fire)." The Prophet asked. "Even if he has committed illegal sexual intercourse or theft?" He replied, "Even then."

(Sahih Bukhari 4.260)
Narrated Ikrima:
Ali burnt some people [hypocrites] and this news reached Ibn 'Abbas, who said, "Had I been in his place I would not have burnt them, as the Prophet said, 'Don't punish (anybody) with Allah's Punishment.' No doubt, I would have killed them, for the Prophet said, 'If somebody (a Muslim) discards his religion, kill him.' "

Sahih Bukhari Volume 9, Book 84, Number 57:

Narrated 'Ikrima:
Some Zanadiqa (atheists) were brought to 'Ali and he burnt them. The news of this event, reached Ibn 'Abbas who said, "If I had been in his place, I would not have burnt them, as Allah's Apostle forbade it, saying, 'Do not punish anybody with Allah's punishment (fire).' I would have killed them according to the statement of Allah's Apostle, 'Whoever changed his Islamic religion, then kill him.'"

3:151
We will cast terror into the hearts of those who disbelieve, because they set up with Allah that for which He has sent down no authority, and their abode is the fire, and evil is the abode of the unjust.

8:60
And prepare against them what force you can and horses tied at the frontier, to terrorize thereby the enemy of Allah...

8:12
I will cast terror into the hearts of those who disbelieve. Therefore strike off their heads and strike off every fingertip of them.

Moreover Allah says of those who reject him. Because, Allah has already sentenced them to death.

2:191, And slay them wherever ye catch them

2:193, And fight them on until there is no more Tumult or oppression

2:216, Fighting is prescribed for you, and ye dislike it. But it is possible that ye dislike a thing which is good for you

3:28, Let not the believers Take for friends or helpers Unbelievers rather than believers: if any do that, in nothing will there be help from Allah

4:48 “Allah forgiveth not that partners should be set up with Him; but He forgiveth anything else, to whom He pleaseth; to set up partners with Allah is to devise a sin Most heinous indeed.”

4:84, Then fight in Allah’s cause - Thou art held responsible only for thyself - and rouse the believers. It may be that Allah will restrain the fury of the Unbelievers; for Allah is the strongest in might and in punishment.

4:141, And never will Allah grant to the unbelievers a way (to triumphs) over the believers

5:33, The punishment of those who wage war against Allah and His Messenger, and strive with might and main for mischief through the land is: execution, or crucifixion, or the cutting off of hands and feet from opposite sides, or exile from the land: that is their disgrace in this world, and a heavy punishment is theirs in the Hereafter;

8:12, I will instill terror into the hearts of the unbelievers: smite ye above their necks and smite all their finger-tips off them

8:15-16, O ye who believe! when ye meet the Unbelievers in hostile array, never turn your backs to them. If any do turn his back to them on such a day - unless it be in a stratagem of war, or to retreat to a troop (of his own)- he draws on himself the wrath of Allah, and his abode is Hell,- an evil refuge (indeed)!

8:17, It is not ye who slew them; it was Allah: when thou threwest (a handful of dust), it was not thy act, but Allah’s: in order that He might test the Believers by a gracious trial from Himself

8:60, Against them make ready your strength to the utmost of your power, including steeds of war, to strike terror into (the hearts of) the enemies, of Allah and your enemies, and others besides, whom ye may not know, but whom Allah doth know. Whatever ye shall spend in the cause of Allah, shall be repaid unto you, and ye shall not be treated unjustly.

8:65, O Prophet! rouse the Believers to the fight. If there are twenty amongst you, patient and persevering, they will vanquish two hundred: if a hundred, they will vanquish a thousand of the Unbelievers

9:5, But when the forbidden months are past, then fight and slay the Pagans wherever ye find them, and seize them, beleaguer them, and lie in wait for them in every stratagem.

9:3, And an announcement from Allah and His Messenger, to the people (assembled) on the day of the Great Pilgrimage,- that Allah and His Messenger dissolve (treaty) obligations with the Pagans. If then, ye repent, it were best for you; but if ye turn away, know ye that ye cannot frustrate Allah. And proclaim a grievous penalty to those who reject Faith.

9:14, Fight them, and Allah will punish them by your hands, cover them with shame, help you (to victory) over them, heal the breasts of Believers,

9:23, O ye who believe! take not for protectors your fathers and your brothers if they love infidelity above Faith: if any of you do so, they do wrong.

9:28, O ye who believe! Truly the Pagans are unclean; so let them not, after this year of theirs, approach the Sacred Mosque.

9:29, Fight those who believe not in Allah nor the Last Day, nor hold that forbidden which hath been forbidden by Allah and His Messenger, nor acknowledge the religion of Truth, (even if they are) of the People of the Book, until they pay the Jizya with willing submission, and feel themselves subdued.

9:39, Unless ye go forth, (for Jihad) He will punish you with a grievous penalty, and put others in your place; but Him ye would not harm in the least.

9:73, O Prophet! strive hard against the unbelievers and the Hypocrites, and be firm against them. Their abode is Hell,- an evil refuge indeed.

9:111, Allah hath purchased of the believers their persons and their goods; for theirs (in return) is the garden (of Paradise): they fight in His cause, and slay and are slain: a promise binding on Him in truth, through the Law, the Gospel, and the Qur’an

9:123, O ye who believe! fight the unbelievers who gird you about, and let them find firmness in you: and know that Allah is with those who fear Him.

22:9, (Disdainfully) bending his side, in order to lead (men) astray from the Path of Allah: for him there is disgrace in this life, and on the Day of Judgment We shall make him taste the Penalty of burning (Fire).

22:19-22; These two antagonists dispute with each other about their Lord: But those who deny (their Lord),- for them will be cut out a garment of Fire: over their heads will be poured out boiling water. With it will be scalded what is within their bodies, as well as (their) skins. In addition there will be maces of iron (to punish) them. Every time they wish to get away therefrom, from anguish, they will be forced back therein, and (it will be said), “Taste ye the Penalty of Burning!”

25:52, So obey not the disbelievers, but strive against them herewith with a great endeavour.

25:68 ”Those who invoke not, with Allah, any other god, nor slay such life as Allah has made sacred except for just cause, nor commit fornication; - and any that does this (not only) meets punishment. “(But) the Penalty on the Day of Judgment will be doubled to him, and he will dwell therein in ignominy,-

37:22-23, “Bring ye up”, it shall be said, “The wrong-doers and their wives, and the things they worshipped- Besides Allah, and lead them to the Way to the (Fierce) Fire!

47:4, Therefore, when ye meet the Unbelievers (in fight), smite at their necks; At length, when ye have thoroughly subdued them, bind a bond firmly (on them): thereafter (is the time for) either generosity or ransom: Until the war lays down its burdens.

48:13 And if any believe not in Allah and His Messenger, We have prepared, for those who reject Allah, a Blazing Fire!

48:29, Muhammad is the messenger of Allah; and those who are with him are strong against Unbelievers, (but) compassionate amongst each other.